जब जब भी चुनाव नजदीक आते हैं तो अन्य प्रदेशों की तर्ज पर हिमाचल प्रदेश में भी राजनैतिक आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु छटपटाए कुछ राजनीतिक नेता नए नए शिगूफे छोड़ने शुरू कर देते हैं । ये बहुतायत वो राजनीतिक नेता होते हैं जो बीजेपी या कांग्रेस पार्टियों से भगाए या इन पार्टियों में मनचाहा अभिष्ट प्राप्त ना होने पर या पार्टी मोहभंग होने पर अपनी महत्वकांक्षाओं को पंख देने के लिए जनता के सामने एक नया विकल्प देने की हुंकार भरते हैं । विचारधारा के नाम पर इनमें शून्यता पाई जाती है और नाही ये लोकहित के ऐसे मुद्दों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिससे जनता को नयापन और अपना बेहतर भविष्य दिखे इसीलिए राजनैतिक आकांक्षाओं की मृगतृष्णा इन्हें आजतक प्यासी ही रखे है।
अगर हिमाचल प्रदेश में तीसरे मोर्चे के नेताओं के नाम गिनाने को बोला जाएगा तो एक आम हिमाचली के जेहन में 1977 के #जनता #दल के नेताओं के अलावा झट से 2 मिनट में सब नेताओं के नाम आ जाएंगे । जब इन्ही नेताओं के विजन का रिकार्ड खंगाला जाए तो 1998 में सुखराम की हिविंका, 2002 में बीजेपी के रुष्ट नेताओं का मित्र मंडल और 2012 में महेश्वर सिंह की हिलोपा का विजन केवल सत्ता में सौदेबाजी करना और अपनी राजनैतिक अदावत पूरी करना रहा ? ये पार्टियां 7 या 8 साल से ज्यादा नहीं चल सकी ।वास्तव में अभी तक ये उपरोक्त पार्टियां और इनके नेता तीसरे मोर्चे के नाम पर अपनी राजनैतिक अदावतों को पूरा करके अपनी राजनैतिक महत्वता को दर्शाने और अपने बेटे बेटियों को सत्ता की मलाई में सेट करने में लगेे रहे, इन्हें आम जनता के मुद्दों से कोई सरोकार नहीं रहा । वास्तव में आज तक हिमाचल प्रदेश की आम जनता के मुद्दों को लेकर कभी कोई विकल्प या मोर्चा बन ही नहीं पाया । ये उपरोक्त पार्टियां ,मित्र मंडल सभी राजनैतिक प्रतिष्ठा को लेकर बने और अपने स्वार्थ पूर्ण होने पर इन मित्र मंडलों के अजातशत्रुओं और इन पार्टियों के आजीवन अध्यक्षों ने आत्मसमर्पण करके इन्ही( बीजेपी, कांग्रेस) पार्टियों के पट्टे गले में डाल लिए। ऐसा नहीं है कि हिमाचल प्रदेश की जनता ने इन पार्टियों के स्वार्थलोलुप नेताओं को स्वीकारा नहीं है ।इन लोगों ने विधानसभा की कुछ सीटें प्राप्त करके अपनी अपनी पार्टियों और मित्र मंडलों का विलय अपनी अपनी मूल पार्टियों में कर लिया । इन नेताओं के तात्कालिक स्वार्थ तो सिद्ध हो गए लेकिन जो कार्यकर्ता इन पार्टियों ,मित्र मंडलों से जुड़े वो हाशिए पर चले गए और ऐसी पार्टियों के ऐसे कार्यकर्ताओं की दशा देखकर अब किसी नई पार्टी का जुझारू एवम संकल्पित कार्यकर्ता बनने से पहले हर समझदार आदमी कई बार सोचता है । इनसे जुड़े कार्यकर्ता ना तो इधर के रहते हैं ना उधर के । वास्तव में नेताओं का विलय तो हो जाता है लेकिन कार्यकर्ताओं का विलय आसानी से नहीं होता है।
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आजकल सोशल मीडिया पर दिल्ली वाली आम आदमी पार्टी का हिमाचल प्रदेश के चुनावों में उतरने का प्रचार और प्रसार जोरों शोरों से चला है जबकि आप पार्टी ने ऑफिसियली तौर पर इस बारे अभी कुछ नहीं कहा है ।आम आदमी पार्टी के इलेक्शन मुड़ को अगर देखा जाए तो ये पार्टी जिस प्रदेश में विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए तैयार होती है उस प्रदेश में इस पार्टी के वालंटियर करीब 2 या 3 साल पहले स्थानीय मुद्दों का अध्ययन करते हैं फिर उन मुद्दों को सोशल मीडिया पर खूब भुनाते हैं और अगर सोशल मीडिया पर उस प्रदेश के आम लोग इनके मुद्दों पर react करने लग जाएं तो यह पार्टी उस प्रदेश के कुछ मशहूर लोगों (जिनका समाज मे आदर हो) को अपनी पार्टी में शामिल करके नेता के तौर पर प्रोजेक्ट करने लगती है ।इसके पश्चात इनका इलेक्सन कैम्पेन शुरू होता है । फिलहाल आम आदमी पार्टी का हिमाचल प्रदेश में अभी कोई काडर नहीं है और न ही ये पार्टी 2022 में चुनाव लड़ने को गंभीर दिख रही है ।
फिर भी कुछ सोशल मीडिया के आप के समर्थक हाथ में क्रांति की ऐसी ज्वाला लिए ललकार भर रहे हैं की 2022 के चुनावों में आम आदमी पार्टी ने यहाँ झंडे गाड़ने ही गाड़ने हैं । जिन क्रांतिकारीयों को ये लगता है कि आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में एक आंदोलन के दम से सत्ता पा ली है और पंजाब में पार्टी दुशरे नम्बर पर एक झटके में आई है तो ये उन सबका बहम है ।आम आदमी को ने दिल्ली और पंजाब के मुद्दों को अपनी स्थापना के समय वर्ष 2013 से लगातार टारगेट किया था तब जाकर उन्हें बाद में सफलता मिली ।फिलहाल हिमाचल प्रदेश में आम आदमी पार्टी का संगठन है ही नहीं ? आम आदमी पार्टी के पास इस समय मास लीडर के तौर पर हिमाचल प्रदेश में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसकी हिमाचल प्रदेश में कोई अपनी क्रेडिबिलिटी हो या जिसके नाम और चेहरे को लोग दिल से चाहते हैं । आम आदमी पार्टी अपने पार्टी के विस्तार के लिए 2022 के हिमाचल के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ,कांग्रेस से टिकट ना मिलने के कारण छिटके कुछ जनाधार वाले नेताओं के बल पर अपनी गेस्ट अपीयरेंस से जरूर चौंका सकती है ।
चुनावों से ऐन 3 या 4 चार महीने पहले कुछ बड़े प्रदेशों की क्षेत्रीय पार्टियां (समाजवादी पार्टी,बहुजन समाजवादी पार्टी, लोजपा,NCP इत्यादि)हिमाचल प्रदेश में चुनाव लड़ने का ऐलान करती हैं और भाजपा, कांग्रेस से छिटके कुछ नेताओं के बल पर एक या दो विधानसभा क्षेत्रों में तो ये प्रभावित करती हैं लेकिन ये चुनावी बरसात में कुकुरमुत्तों की तरह ये पार्टियां सिर्फ गेस्ट अपीयरेंस के लिए आती हैं । इन पार्टियों का एक मकसद अपनी पार्टी के राष्ट्रीय पार्टी बने रहने और चुनाव चिन्ह बचाने के लिए वोट प्रतिशत हासिल करना भी होता है । हिमाचल प्रदेश के लोग भी इन पार्टियों की विचारधारा को सीरियसली नहीं लेते हैं ।
कम्युनिस्ट पार्टी इसका अपवाद जरूर है पर आज तक प्रदेश में तीसरे विकल्प के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी ने कितने विधायक हमारी विधानसभा को दिए हैं वो भी जगजाहिर है । खैर अब उनकी विचारधारा की स्वीकार्यता ढलान की तरफ है इनको हिमाचल प्रदेश की राजनीति में क्योँ स्पेस नहीं मिल सका वो एक अलग चर्चा का विषय है
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