राजा नहीं फकीर है
हिमाचल की तकदीर है।
THE NEWS WARRIOR
8 जुलाई 2021
उन्होंने इस नारे को आजीवन सार्थक किया। वो दिलो के राजा थे, चंबा से सिरमौर और काजा से भरमौर वो जनता के सर्वमान्य लोकप्रिय नेता थे।
हिमाचल प्रदेश की तरक्की में उनका अहम योगदान रहा। 6 बार प्रदेश के मूख्यमंत्री के रूप में उन्होंने शपथ ली। हर कोने में वो पहुंचें। हिमाचल में किसी भी कोने में आप जाइये चर्चा में लोग हमेशा कहेंगे एक वो यःहाँ आए थे। यह कथन आज अहमियत न रखता हो पर तब जरूर रखता था जब सड़को के बिना हर क्षेत्र दुर्गम था। वो गाड़ी न सही तो घोड़े खच्चर पालकी पैदल में हर जगह पहुंचे।
पंडित नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री काल मे वो राजनीति में सक्रिय रहे। वो अकेले अपने दम पर सरकार बदलने का दम रखते थे।
उनका नाम ही उनके कैडर में उत्साह का संचार कर देता था।
वो बुशैहर रियासत के 144 वें उत्तराधिकारी थे।
1947 में देश नया नया आजाद हुआ था सुद्दूर किन्नौर में लोगो को यह खबर तक नही थी कि वो अब आजाद भारत के वासी हैं। राजा पदम् सिंह की म्रत्यु के बाद वो
लोग अपने युवराज टिका वीरभद्र सिंह के राज्याभिषेक का इंतज़ार कर रहे थे। टिका वीरभद्र सिंह उस समय महज 13 वर्ष के थे ।
उसी दौर में घुम्मकड़ लेखक राहुल सांकृत्यायन ठेयोग से पैदल कोटगढ़ थानेदार होते हुए रामपुर पहुंचें।
राहुल पद्म सिंह की विधवा रानी से मिले, आजादी केबाद अपने और अपने अल्पायु पुत्र के भविष्य के लिए रानी चिंतित थीं। राजपरिवार की संपत्ति का सरकारीकरण हो रहा था, तो कुछ संपति ऑडिट वाले अधिकारियों ने मार ली थी।
रानी इस बात से शर्मिंदा थीं, की महामंडित को किन्नर देश मे जाने के लिए एक अदद घोड़ा भी वो अपनी ओर से नहीं दे पा रहीं थी।
अपने जिस बालक के लिए बुशहर की महारानी चिंतित थी, उसका भविष्य विधाता लिख चुका था।
राजा पद्म सिंह का 13 वर्षीय पुत्र वीरभद्र सिंह, रामपुर, चीनी ( किन्नौर) और रोहड़ू तहसील तक सिमटी रियासत का राजा नहीं बल्कि पूरे हिमाचल प्रदेश पर दशको तक राज करने की किस्मत लिखवा कर लाया था। यह भला रानी भी उस दौर में कहां जानती रहीं थीं।
हिमाचल राजनीति की किंवदंती पूर्व मूख्यमंत्री वीरभद्र सिंह आज नहीं रहे।
उनकी जुबान पत्थर की लकीर कही जाती थी। मूख्यमंत्री रहते निजी आवास पर सुबह उठकर बिना अपॉइन्मेंट जनता से मिलने की उनकी रूटीन हमेशा बनी रही ।
जिसका कोई जुगाड़ नही, वो सुबह उनके घर पर उनसे मिल सकता था अपनी बात रख सकता था। सर्वमान्यता थी कि आफसीयल कुर्सी पर बैठकर किए गए उनके सिग्नेचर की हुई कोई फाइल कागज बेशक बाबूगिरी में रुक जाए, मुकाम तक न पहुंचे । परंतु निजी आवास पर जनता से सुबह रूबरू होते हुए अगर उन्होंने किसी मांग मुद्दे पर हामी भर दी वो फाइल कागज कहीं नही रुक सकता था।
राजीनीति और कूटनीति में वो अपने आप मे एक किताब थे ।
कोई भी मूख्यमंत्री किसी संवेदनशील मुद्दे को कैसे हैंडल करता है यह पैमाना जनता इस कथन से करती कि वीरभद्र सिंह होते तो वो इस मुद्दे पर कैसे निबटते।
संयोग है कि कुछ घण्टो तक कल मैं उनके विधानसभा क्षेत्र अर्की में था। 6 वर्ष की उम्र में मैने उन्हें 1993 में पहली बार सुना जब डमेहर स्कूल बिलासपुर के मैदान में वो चुनावी जनसभा में आए। देर शाम तक भीड़ इंतज़ार करके घरों को लौट चुकी थी।
देर रात फिर भी वो पहुंचे और मंच से लाउडस्पीकर पर घोषणा हुई कि वीरभद्र सिंह पहुंच रहे है। किस तरह से गांव गांव में लोग सभास्थल की ओर उन्हें सुनने को घरों से निकल कर दौड़े यह क्रेज मैंने उस समय देखा।
रामपुर रोहड़ू शिमला ग्रमीण अर्की तक उनके चुनावी जीतो का अश्वमेघ यज्ञ चलता रहा।
हिमाचल में कहावत है वीरभद्र सिंह 68 विधानसभा में कहीं से भी चुनाव जीतने का माद्दा रखते हैं। भला इससे बढ़कर लोकप्रियता का क्या पैमाना होगा।
राजनीति के भीष्म पितामह लंबे अरसे की मृत्यु शैया के बाद आज ब्रह्म मुहर्त में ब्रह्मलीन हो गए।
वीरभद्र सिंह , हमारे दिलों में हमेशा बने रहेंगे।
भीमाकाली के अनन्य भग्त कूटनीति के राजा वीरभद्र सिंह को मेरा अंतिम नमन।
साभार : आशीष नड्डा