हिमाचल के ऊपरी क्षेत्रों का खास पकवान क्यों है सिड्डू 

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मनुष्य के पारम्परिक खाद्य पकवानों को देखें तो उसमें स्थानीय उपलब्ध संसाधनों काी अहम् भूमिका रहती है।  ऐसा ही कुछ सिड्डू के साथ भी है। 
 सिड्डू हिमाचल के मंडी, शिमला, कुल्लू , सिरमौर आदि जिलों के ऊपरी भागों  का प्रमुख व्यंजन   है। सिड्ड पकवान के साथ साथ तीन चार या इससे भी ज्यादा दिन तक चलने वाला एक आहार है।  पहाड़ों की कठिन भोगाैलिक परिस्थितियों और जीवन यापन को देखें तो ऐसे खाद्य व्यंजन बहुत जरुरी हो जाते थे जो एक बार तैयार होकर कुछ दिन चल सकें या कम मात्रा में खाने पर ही पेट भर दें। 

प्राचीन समय में मुंह अँधेरे पशुधन को लेकर घाटियों पर्वतों पर चरवाहों का निकलना हो या मुसाफिर बनकर शहरों की तरफ सफर करना हो।  पोटली में रखे सिड्डू , साथ में घी और कहीं चाय मिल जाए तो दिनभर के  भरपेट भोजन का जुगाड़ यही हो जाता था।  
 
समय के साथ सिड्डू पर भी एक्सपेरिमेंट हुए हैं और इसके इंग्रेडिएंट्स से लेकर इसको बनाने खाने के तरीके में भी बदलाव आये हैं।  
 
सिड्डू गेहूं के आटे से बनाया जाने वाला पकवान है| सबसे पहले आटा लेकर उसमें यीस्ट या खमीर मिलाकर गूंथा जाता है|  (रोटी के लिए गूंथे गये आटे से हल्का सा गीला)  इसके पश्चात गूंथे हुए आटे को 3 से 5 घण्टे तक (जब तक आटा फूल न जाए) मोटे कपड़े से ढक कर रख दिया जाता है।
 
 सिड्डू के अंदर भरे जाने वाले पेस्ट या मसाले में  पारम्परिक रूप से अफीमदाने या भाँग के बीज या तिल या अखरोट का प्रयोग होता है।  हालाँकि इन सब चीजों की उपलब्धता न होने पर या नए एक्सपेरिएंट्स के तौर पर  साग सब्जी का  प्रयोग भी लोग करने लगे हैं।  परन्तु पारम्परिक रूप से अफीफदाना या भांग  के बीज ही सिड्डू की आत्मा है। अफीमदाने, भाँग के बीज और तिल को गर्म तवे पर हल्का भूनकर बारीक पीस लिया जाता है । इसके पश्चात इसमें स्वादानुसार नमक, मिर्च, हल्दी, प्याज, जीरा आदि पीसकर पानी के साथ मिलाकर  एक  पेस्ट सा बना लिया जाता है ।

आटा अच्छी तरह फूल जाने के बाद उसकी रोटी बनाकर (आम रोटी से आधी और मोटाई में तीन गुनी)  उसमें  यह पेस्ट भर दिया जाता है जैसे समोसे में आलू भरे जाते हैं।  इस गोलाकार (आजकल चपटा भी लोग बनाने लगे हैं )पेस्ट से भरे आटे को गर्म तवे पर हल्का हल्का गर्म किया  जाता है।  
 
उसके बाद स्टीम (भाप) में उसको पकाना सबसे महत्वपूर्ण  और अंतिम स्टेप होता है।  उस जमाने में जब प्रेशर कूकर या आजकल जो मोमो / इडली सीडू मेकर जो बर्तन आये हैं 

इनका कोई अस्तित्व नहीं था उस ज़माने में  पीतल के एक ख़ास बर्तन “चल्ली” का प्रयोग होता था।  
 
चल्ली के तल में पानी भरा जाता था और बीच में छोटी छोटी लकड़ियों को  इस तरह  से जाल जिसे ” थार” की तरह फंसाया जाता था की नीचे पानी गरम होने पर जब स्टीम बने तो वो उस लकड़ी रुपी जाले से क्रास होकर निकले उसी जाले पर सिड्डू रखे जाते थे।  स्टीम ट्रीटमेंट पहले इसी टेक्निक से होती थी।  समय के साथ साथ इसके लिए स्पेशल बर्तन मार्केट में अब उपलब्ध हैं इसलिए चल्ली या तो गायब हो चुकी है या घरों के  कोने में कहीं पड़ी होती है।  सिड्डु। में उपरोक्त मसाले की जगह बकरे की चरबी भी डालने का प्रचलन रहा है ।

सिड्डू  पारम्परिक रूप से घी के साथ खाया जाता है , पुराने दौर में गरम घी को परोसने वाले वाले बर्तन को “करवा” कहते थे जो मिटटी का होता था।  वर्तमान में यह   स्थान स्टील या एल्युमीनियम की केतली ने ले लिया है।  
 
सिड्डू   को आज भी विशेष अतिथियों, सक्रांति, त्योहारों, विवाह के पश्चात विशेष मेहमानी आदि अवसरों पर बनाया जाता है। घी का स्थान अब अलग अलग तरह  की चटनियों ने ले लिया है , इसमें बुरांश की चटनी प्रमुख है।  
 
चम्बा में भी एक डिश का नाम सीडू है पर उसको कड़ी में मिलाकर खाया जाता है।  उसमे गेहूं की जगह मक्की के आटे का प्रयोग होता है।  मोटा पिसा हुआ मक्की का आटा उसमें हलका सा पानी मिला कर बड़े आकार के सख्त लङङु जैसे बना लिए जाते हैं  फिर उस लङङु को पानी में उबलने के लिए छोड़ दिया जाता है  कुछ देर पकने पर वह और सख्त हो जाता है उसे निकाल कर आग में हल्का भूरा होने तक पका लेते हैं  और फिर   कड़ी में मिलाकर खाया जाता है।  
 
 हालाँकि ऊपरी हिमाचल का सिड्डू इससे बिलकुल  अलग हुआ बनाने में भी और खाने में भी।  अफीम दाना भांग के बीज अखरोट यह सब सिड्डू की तासीर को गरम रखते हैं भला गर्म हों भी क्यों ना जब पकवान ही ठन्डे इलाके का है।  कुल मिलाकर वही बात है लोकल रिसोर्स हर पकवान की  रेसिपी का मूल हैं।

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