THE NEWS WARRIOR
23 /03 /2022
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना बाजु-ए-कातिल में है।।
गुलामी की बेड़ियों से देश को आजादी दिलाने के लिए अपने प्राणों को न्योछावर करने वाले भारत के वीर सपूतों को जब भी याद किया जाता है, उनमें भगत सिंह का नाम जरूर आता है. शहीद भगत सिंह का नाम भारत के उन वीर क्रांतिकारियों में शामिल है, जिन्होंने मातृभूमि के लिए हंसते-हंसते अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया. 23 मार्च 1931 की रात भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु को लाहौर षडयंत्र के आरोप में ब्रिटिश सरकार ने फांसी पर लटका दिया था, तभी से इन तीनों शहीदों की याद में 23 मार्च को शहीदी दिवस मनाया जाता है. भगत सिंह को जब फांसी हुई थी, तब उनकी उम्र महज 23 साल थी. आज भी उनके बलिदान को याद किया जाता है
भगत सिंह का जन्म
मेरे लहू का हर एक कतरा इंकलाब लाएगा।।
14 साल की उम्र में कूद पड़े थे आंदोलन में
मातृभूमि के लिए ये उनका प्यार ही था कि वो महज 12 साल की उम्र में ही आजादी के आंदोलन में कूद पड़े. उन्होंने देश की आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई है, वो हर हाल में अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजादी दिलाना चाहते थे. वो अपने क्रांतिकारी विचारों के लिए जाने जाते हैं. चलिए शहीद भगत सिंह की 89 वीं पुण्यतिथि पर जानते हैं उनके 10 क्रांतिकारी विचार जो आज भी युवाओं के दिलों में देशभक्ति का अलग जगाने की प्रेरणा देते हैं
जिंदगी तो सिर्फ अपने कंधों पर जी जाती है।
दूसरों के कंधे पर तो सिर्फ जनाजे उठाए जाते हैं।।
भगत सिंह ने अपने गाँव के स्कूल में पाँचवीं कक्षा तक पढ़ाई की. जिसके बाद उनके पिता किशन सिंह ने उन्हें लाहौर के दयानंद एंग्लो वैदिक हाई स्कूल में दाखिला दिलाया. बहुत कम उम्र में, भगत सिंह ने महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए असहयोग आंदोलन का अनुसरण किया. भगत सिंह ने खुले तौर पर अंग्रेजों को ललकारा था और सरकार द्वारा प्रायोजित पुस्तकों को जलाकर गांधी की इच्छाओं का पालन किया था. यहां तक कि उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज में दाखिला लेने के लिए स्कूल छोड़ दिया.
गांधी की अहिंसक कार्रवाई से खुद को किया अलग
उनके किशोर दिनों के दौरान दो घटनाओं ने उनके मजबूत देशभक्ति के दृष्टिकोण को आकार दिया – 1919 में जलियांवाला बाग मसकरे और 1921 में ननकाना साहिब में निहत्थे अकाली प्रदर्शनकारियों की हत्या. उनका परिवार स्वराज प्राप्त करने के लिए अहिंसक दृष्टिकोण की गांधीवादी विचारधारा में विश्वास करता था. भगत सिंह ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और असहयोग आंदोलन के पीछे के कारणों का भी समर्थन कियाचोरी चोरा घटना के बाद, गांधी नेअसहयोग आंदोलन को वापस लेने का आह्वान किया. फैसले से नाखुश भगत सिंह ने गांधी की अहिंसक कार्रवाई से खुद को अलग कर लिया और युवा क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हो गए. इस प्रकार ब्रिटिश राज के खिलाफ हिंसक विद्रोह के सबसे प्रमुख वकील के रूप में उनकी यात्रा शुरू हुई.
शादी करने की योजना
वह बी.ए. की परीक्षा में थे. जब उनके माता-पिता ने उसकी शादी करने की योजना बनाई. उन्होंने सुझाव को अस्वीकार कर दिया और कहा कि, “यदि उनकी शादी गुलाम-भारत में होने वाली थी, तो मेरी दुल्हन की मृत्यु हो जाएगी.
इस कदर वाकिफ है मेरी कलम मेरे जज़्बातों से।
अगर मैं इश्क़ लिखना भी चाहूँ तो इंक़लाब लिख जाता है।।
23 मार्च का दिन इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज
23 मार्च का दिन इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज हो चुका है। इस दिन को भारत शहीद दिवस के तौर पर मनाता है। आज ही के दिन भारत के वीर सपूतों ने देश के लिए अपने प्राणों का बलिदान किया था। शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का नाम हर देश प्रेमी, युवा जरूर जानता है। ये तीनों ही युवाओं के लिए आदर्श और प्रेरणा है। इसी वजह इनका पूरा जीवन है, जिसे इन तीनों वीरों ने देश के नाम कर दिया। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी दे दी थी। उन्हें लाहौर षड़यंत्र के आरोप में फांसी की सजा सुनाई गई थी। लेकिन क्या आपको पता है कि इन तीनों शहीदों की मौत भी अंग्रेजी हुकूमत का षड़यंत्र था? भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी 24 मार्च को देना तय था लेकिन अंग्रेजों ने एक दिन पहले ही यानी 23 मार्च को भारत के तीनों सपूतों को फांसी पर लटका दिया। आखिर इसकी वजह क्या थी? आखिर भगत सिंह और उनके साथियों ने ऐसा क्या जुर्म किया था कि उन्हें फांसी की सजा दी गई।
दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उलफत।
मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए वतन आएगी ।।
भगत सिंह की पुण्यतिथि पर जानिए उनके जीवन से जुड़ी रोचक बातें।
सेंट्रल असेंबली में बम फेंके
दरअसल, भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने आठ अप्रैल 1929 को सेंट्रल असेंबली में बम फेंके और आजादी के नारे लगाने लगे। वे दोनों वहां से भागे नहीं, बल्कि बम फेंकने के बाद गिरफ्तारी दी। इस दौरान उन्हें करीब दो साल की सजा हुई।
भगत सिंह को दो साल की सजा
जेल में करीब दो साल रहने के दौरान भगत सिंह क्रांतिकारी लेख लिखा करते थे और अपने विचारों को व्यक्त करते थे। उनके लेखों में अंग्रेजों के अलावा कई पूंजीपतियों के नाम भी शामिल थे, जिसे वह अपना और देश का दुश्मन मानते थे। भगत सिंह ने अपने एक लेख में लिखा था कि मजदूरों का शोषण करने वाला उनका शत्रु है, वह चाहे कोई भारतीय ही क्यों न हो।
जीवन देश के नाम कुर्बान
अपना जीवन देश के नाम कुर्बान कर देने वाले भगत सिंह बहुत बुद्धिमान और कई भाषाओं के जानकार थे। उन्हें हिंदी, पंजाबी, उर्दू, बांग्ला और अंग्रेजी आती थी। बटुकेश्वर दत्त से उन्होंने बांग्ला सीखी थी। अपने लेखों में वह भारतीय समाज में लिपि, जाति और धर्म के कारण आई दूरियों पर चिंता और दुख व्यक्त किया करते थे।
तीनों सपूतों की फांसी की तारीख तय
दो साल की कैद के बाद राजगुरु और सुखदेव के साथ उन्हें 24 मार्च 1931 को फांसी दी जानी थी लेकिन देश में उनकी फांसी की खबर से लोग भड़के हुए थे। वह तीनों सपूतों की फांसी के विरोध में प्रदर्शन कर रहे थे। भारतीयों का आक्रोश और विरोध देख अंग्रेज सरकार डर गई थी।
अंग्रेजी हुकूमत का डर
अंग्रेजी हुकूमत को डर था कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी वाले दिन भारतीयों का आक्रोश फूट जाएगा। माहौल बिगड़ सकता है। ऐसे में उन्होंने अचानक फांसी का दिन और समय बदल दिया।
11 घंटे पहले दी भगत सिंह को फांसी
भगत सिंह को 11 घंटे पहले ही 23 मार्च 1931 को शाम 7.30 फांसी पर चढ़ा दिया गया। इस दौरान कोई भी मजिस्ट्रेट फांसी की निगरानी करने को तैयार नहीं था। कहा जाता है कि जब भगत सिंह को फांसी दी गई, तो उनके चेहरे पर मुस्कान थी। वह अंत तक अंग्रेजों के खिलाफ नारे लगाते रहे।
हमें पागल ही रहने दो, हम पागल ही अच्छे हैं।।