जिम्मेवारी सिर्फ सरकार ही नहीं जनता भी समझे – प्रदीप शर्मा

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प्रदीप शर्मा 

हिमाचल प्रदेश भारतीय जनता पार्टी कार्यसमिति सदस्य,

मीडिया प्रभारी काँगड़ा चम्बा संसदीय क्षेत्र भाजपा ) 

लेख़क ( जिला कांगड़ा से हैं)

 

जिम्मेवारी सिर्फ सरकार ही नहीं जनता भी समझे – प्रदीप शर्मा

THE NEWS WARRIOR 

31 मई 

भारत में कोरोना का दूसरा लहर अभी खत्म नहीं हुआ कि तीसरे लहर की आशंका लोगों को परेशान करने लगी। देश में हुए अधिकांश मौतों की वजह कोरोनावायरस का नया स्ट्रेन है।
भारत की आबादी जिस तरह की है उस लिहाज से संक्रमण का प्रसार बहुत अधिक हो रहा है। हाल ही में  विश्व स्वास्थ्य संगठन की चीफ साइंटिस्ट डॉ  सौम्या स्वामीनाथन ने वायरस के रोकथाम के लिए टीकाकरण को प्रमुख उपलब्धि बताया है। अक्टूबर 2020 में इस नये लहर की पुष्टि हुई थी। जितना अधिक स्ट्रेन, होगा संक्रमण भी उतनी तेजी से लोगों में फैलेगा और शहरों से लेकर गांव तक की एक अधिकांश आबादी इसके चपेट में आ जाएगी।  

सुरक्षा मानकों की लगातार अनदेखी करना, लापरवाही भरी आदतों से खुद को तथा आसपास की आबादी को बीमार करना एक गैर जिम्मेदार नागरिक होने का प्रमाण है। सिर्फ टीकाकरण कर देने से कोई भी बीमारी समाप्त नहीं हो जाती,वरन् इसके पीछे कई और भी जिम्मेदार कारण है। होम आइसोलेशन में रह रहे मरीजों ने खुद को बहुत लापरवाह रखा, चिकित्सीय परामर्श में रहे बगैर झोलाछाप डॉक्टरों एवं बिना डॉक्टर की सलाह से  मेडिकल स्टोरों की दवा खा कर वह अपने को अत्यधिक बीमार कर लिया।

लापरवाही इतनी अधिक बढ़ गई थी कि लोग होम आइसोलेशन को 14 दिनों तक काटने को तैयार नहीं थे। उन्हें कोई चिंता नहीं थी। इस बात की लापरवाही अत्यधिक लोगों में देखी गई कि वे लगातार कोविड पाजिटव  होने के बाद भी परिवार के अन्य सदस्यों से छुपाते रहे एवं नुक्कड़ चौराहे पर बातचीत में मस्त रहे। करोना काल में शादियों ने सबसे ज्यादा काम ख़राब किया , सरकारों द्वारा लॉकडाउन लगाया गया है लोग उसका पालन पूरी ईमानदारी से नहीं करते |

सरकारों को जबरदस्ती लोगो को मास्क पहनाना पढ़ रहा है गलतियाँ जनता की भी है पर दोष सरकरों को देना है यह तो परम्परा बन गयी है नि:संदेह सरकार एवं सामाजिक संगठनों ने पर्याप्त रूप से टीकाकरण पर जोर दिया। लेकिन क्या सिर्फ टीकाकरण करने से महामारी बंद हो जाएगी? क्या भारत की अधिकांश आबादी इसी तरह अपने आप को लापरवाह करती रहेगी?

क्या भारत के गांव में अभी भी लोग उतनी जागरूक नहीं जितने कि शहर के? क्या भारत के ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं चिकित्सीय उपकरणों दवाइयों एवं चिकित्सा आपूर्ति की उतनी उपलब्धता क्यों नहीं है जितनी कि महानगरों एवं मेट्रो शहरों की है? सवाल सिर्फ इतना ही नहीं है। सरकार अपनी तरफ से लगातार लोगों को स्वस्थ देखना चाहती हैं। भारत की अधिकांश आबादी मे से अगर 73 फीसदी शिक्षित है,तो तो 27 फीसदी अशिक्षित भी। अधिकांश शिक्षित आबादी में से लोग आखिर इतनी लापरवाह क्यों है? प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, जिला अस्पताल तथा कोविड-19 पर टीकाकरण जितनी मुस्तैदी से चल रहा है, समझाने की जरूरत नहीं।

अभी भी कुछ लोग  कोरोनावायरस के टीका को लगवाने से अपने आप को बचा रहे हैं।क्या कारण है कि लोगों का विश्वास टीके के प्रति इतना गंभीर नहीं है जितना अपने रहन-सहन एवं भोग विलासिता के अन्य गैर जरूरी सामान इकट्ठा करने में है? ‘सिस्टम’ को सुधरने में धीरे-धीरे वक्त लगेगा पर अपने को व्यक्ति धीरे-धीरे जरूर सुधार सकता है।इस महामारी ने न सिर्फ केवल शारीरिक रूप से मनुष्य को कमजोर किया बल्कि कई मानसिक विकार भी उत्पन्न किए। कोरोना महामारी के इस विकराल आपदा में लोगों में मानसिक अवसाद, चिंता, दुख चिड़चिड़ापन, से लेकर भूलने की बीमारी तथा एकाग्रता की कमी देखी गई। लोग इन दिनों अपने घरों में कैद है। सरकार लगातार कोरोना वायरस की तेजी से प्रसारित होने वाली श्रृंखला को तोड़ने में पूरा जोर लगा रही है। केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार में इन दिनों पारस्परिक सहयोग एवं संबंध स्थापित होते हुए दिख रहे हैं। वैसे भी अलग-अलग पार्टी होने के नाते अक्सर केंद्र और राज्य की समस्याओं समाधानो  को लेकर विरोधाभास उत्पन्न  होता रहा है। 18 साल से ऊपर के नौजवानों टीकाकरण को लेकर देश की अधिकांश जनसंख्या कोविड-19 के टीके को लेकर जागरूक होते हुए सक्रिय हैं। 

मनुष्य के जीने के अधिकार की जब बात की जाती है तो केवल पेट भर लेना ही पर्याप्त नहीं होता है। जीवन के अधिकार के विषय मे मानवीय गरिमा के साथ जीवन यापन की बात कही जाती है। गरिमा को कुछ ही शब्दों में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है। इसके अंतर्गत सबसे महत्वपूर्ण है, स्वास्थ्य और शिक्षा।  

स्वास्थ्य का अधिकार, संविधान में एक मौलिक अधिकार नही है ?

संविधान के अंतर्गत कहीं पर भी, एक मौलिक अधिकार के रूप में, स्वास्थ्य के अधिकार को शामिल नहीं किया गया है।

जब आग लगती है तो कुँवा खोदना शुरू नही किया जाता है। बल्कि पुराने कुंवे, बावड़ी आदि का जल उस समय आपात स्थिति में काम आता है। हैल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर भी ऐसी चीज नहीं है जिसे रातों रात बेहतर बनाया जा सके। रातोरात, किसी भी बड़े हॉल को बेड, ऑक्सीजन और अन्य मेडिकल उपकरणों द्वारा सुसज्जित कर के उसका उद्घाटन करा कर सुर्खियां बटोरी जा सकती हैं, और आत्ममुग्ध हुआ जा सकता है, पर रातोरात, डॉक्टर और अन्य प्रशिक्षित पैरा मेडिकल स्टाफ का इंतज़ाम नही किया जा सकता है। इसके लिये एक व्यापक योजना बनानी होगी और सरकारी क्षेत्र के साथ निजी क्षेत्र के भी इंफ्रास्ट्रक्चर का उपयोग करना होगा।

जैसा की कई स्थानों से खबरे आ रही है इस महामारी में निजी अस्पतालों द्वारा किया गया बेहिसाब और संवेदनहीन आचरण, बीमार और आर्थिक संकट झेल रहे, जनता के प्रति एक आपराधिक कृत्य है। पर लोग अपने मरीज की जान बचाये या निजी अस्पतालों की इस बर्बर लूट से बचे। सरकारों का यह भी दायित्व है कि वह कोई ऐसी व्यवस्था बनाये जिससे लोग यदि निजी अस्पतालों में इलाज के लिये गए भी हैं तो उनका आर्थिक शोषण तो न हो, और उनकी मजबूरी का कोई लाभ नहीं उठा पाए।

हिमाचल प्रदेश सरकार ने इस दिशा में उचित कदम उठाये है सरकार को बेड, दवाओं, अन्य जांचों की एक ऐसी दर तय करनी होगी जिससे एक आम व्यक्ति भी अपना इलाज करा सके और ऐसा भी न हो, कि बीमारी से तो वह बच जांय, पर कर्ज से कहीं बह मर जाए। यही संविधान के अंतर्गत दिया गया सम्मान से जीने का अधिकार, प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हो जाता है। सरकार को अब अपनी प्राथमिकता लोककल्याणकारी राज्य के उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए बदलनी पड़ेगी।

 

 

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