THE NEWS WARRIOR
09 /08 /2022
पशु- धन की उपेक्षा से कृषि क्षेत्र प्रभावित होने के साथ ही दुग्ध क्रांति का स्वप्न अधूरा ही रह गया है । ग्रामीण क्षेत्रों में अब खेतीबाड़ी का काम नाममात्र का ही रह गया है । युवा वर्ग तो अब इसमें रुचि नहीं ले रहा है । इस लिए काफी उपजाऊ भूमि बंजर हो चली है तथा उसमें तेजी से जहरीली घास फैल रही है । उक्त बंजर भूमि अब सामान्य घास भी समाप्त हो रही है । इससे भविष्य में पशु चारे की भी कमी हो गई है । अब किसान भले ही उन्नत नस्ल के पशु पाल रहे है । उत्तम किस्म के बीज, खाद व कीट नाशक दवाइयों का प्रयोग भी किया जा रहा है लेकिन अब पहले की तरह बात नहीं रही है । इसके साथ ही कीट नाशक दवाइयों व कैमिकलयुक्त खाद्य पदार्थों के दूरगामी परिणामों के बारे में पर्यवरण प्रेमी बेहद चिंतित है । कृषि का क्षेत्र हो या पशुपालन का लोगों को कैमिकल जहर से निपटना मुशिकल हो रहा है ।
पर्यवरण संतुलन बिगड़ रहा
पर्यवरण संतुलन गड़बड़ाकर रह गया है तथा हवा व पानी भी शुद्धता नहीं रही है । पशुओं की नस्ल में भले ही सुधार हुआ है । अब देशी गाय भी नाममात्र ही रह गई है । लेकिन नई नस्ल की गायों में पहले की तरह दूध में गुणवत्ता नहीं रही।इस तरह अनाज से बने पकवान भी पहले की तरह स्वदिष्ट नहीं बन रहे हैं । कई पशुपालक तो ऐसे गैर जिम्मेदार व निर्दयी हो गए हैं कि जब तक उनके दुधारू पशु दूध देते हैं । तब तक उनको घास पानी दे देते हैं तथा उसके बाद उन्हें खुले में छोड़ देते हैं । फिर ये पशुपालकों के पशु बेसहारा होकर सड़कों, चौराहों, गली मोहल्लों में भटकने को मजबूर हो जाते हैं तथा खेती व बागवानी का नुकसान पहुंचते हैं । दिनभर तो ये बेसहारा पशु सड़कों पर घूमते रहते हैं तथा सांझ ढलते ही फसलों के खेतों में पसर जाते हैं । सवेरा होते होते फसल को ही चट कर जाते हैं । अपनी फसल का नुकसान होते कई किसान तो उन्हें खूब दौड़ाते हैं । कई बार तो ऐसे पशु दौड़ते हुए गिर भी जाते हैं । अब तक ऐसे कई पशु घायल हो जाते हैं तथा कई तो दम भी तोड़ चुके हैं । कुछ पशुपालक तो इतने असंवेदनशील हो गए हैं कि पशुओं के छोटे बच्चों को भी सड़क पर भटकने के लिए छोड़ देते है । बेसहारा पशुओं में ऐसे भी कई खुंखार सांड है जो मारने के लिए पीछे दौड़ते हैं । अब तक ऐसी कई जानलेवा बारदतें हो चुकी है । पशुपालकों के ही पालतू पशु बेसहारा बन जाते हैं तथा राजनीतिक हल्के में यह सत्तासीन सरकार के खिलाफ जबर्दश्त मुद्दा बन जाता है । उक्त पशुओं से लोगों को भारी मुश्किल हो रही है । चुनाव के समय बेसहारा पशुओ का मुद्दा बड़े जोर शोर से उठता रहा है ।
कृषि व पशुपालन व्यवसाय एक-दूसरे के पूरक
एक समय था जब कृषि व पशुपालन व्यवसाय एक-दूसरे के पूरक थे । जो खेतीवाड़ी करता था वह पशु भी पलता था । यानी जो जितना बड़ा किसान होता था वह उतना ही बड़ा पशुपालक भी था । कृषि कार्य पशुओं पर अर्धारित था । कृषि के कार्य से ही पशुचारे की पूर्ति भी होती थी । किसान व उसका परिवार वर्षभर खेतीवाड़ी व पशुपालन के काम में व्यस्त रहता था । खासकर फसल की बिजाई, गुड़ाई, कटाई व गहाई के समय तो किसानों को रात-दिन काम करना पड़ता था । सालभर के लिए पशुचारे को भी इकट्ठा करके रखा जाता था । बदली परस्थितियों में कृषि क्षेत्र में तो काफी प्रगति हुई है लेकिन दुग्ध उत्पादन में काफी कमी आई है । नतीजन अब लोगों के मवेशिखानों की शोभा कहलाए जाने वाला पशु-धन सड़कों पर विचरने लगा है । उसे अब बेसहारा पशुओं का दर्जा दिया गया है ।
खेती करने के पारंपरिक तरीके बदले
सरकार ने कृषि व पशुपालन को बढ़ावा देने के लिए कृषि विभाग एवं पशुपालन विभाग दो अलग-अलग विभाग खोले है । लोग अब पशु पालन में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं तथा खेती करने के पारंपरिक तरीके बदल गए है । खेतीबाड़ी का सारा काम पहले बैलों पर ही निर्भर था । ग्रामीण गाय को पालना पुण्य समझते थे । धार्मिक मान्यता के अनुसार गाय के शरीर तेतीस करोड़ देवी -देवताओं का वास होता है । लोकमान्यता के अनुसर गऊदान पवित्र दान माना जाता है ।
किसानों ने अब मेहनत-मशक्कत करनी ही छोड़ दी
ऐसा भी माना जाता है कि मरणाशन स्थिति में कराया गया गऊ दान मृत प्राणी की नैया पार लगाने में सहायक होता है । वर्षभर मृतक के नाम की एक रोटी गाय को दी जाती है । इससे यह समझा जाता है कि गाय को दी गई रोटी दिवंगत आत्मा को मिलती है । गो-मूत्र से अनेक व्याधियां दूर होती है । जिस स्थान पर कोई भी धार्मिक कार्य होना होता है, वहां गाय के गोबर से लिपाई की जाती है तभी उस स्थान को पवित्र माना जाता है । गाय का दूध अमृत के समान बताया गया है । भैंस के पास दूध की अधिक मात्रा होती है भैंस का दूध गाढ़ा होता है तथा दूध व घी भी काफी मात्रा में मिलता है ।इसलिए लोग गाय के साथ ही भैंस भी पालते थे ताकि दूध-घी की कोई कमी न रहे । गायें यदि बछड़ों को जन्म देती थी तो शुरू से ही उसकी जोड़ी के बछड़े की तलाश शुरू हो जाती थी । तीन-चार सालों के बाद उन्हें हल जोताई में उपयोग करते थे । बछड़ी होने की होने पर उसे पाल-पोष कर बड़ा किया जाता ताकि भविष्य में उससे उपयोगी बैल व दुधारू गाय मिल सकें । लेकिन अब ट्रेक्टरों व अन्य मशीनों से होता था । अधिकतर किसानों ने अब मेहनत-मशक्कत करनी ही छोड़ दी है । इसलिए अब उन्हें बीमारियां भी घेरने लगी है
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