रिवालसर संक्षित परिचय -:
हिमाचल प्रदेश के मंडी जिला से 24 किलो मीटर दूर सड़क मार्ग से जुड़ा एक प्राचीन तीर्थ स्थान है, जहां पर एक बड़ा सरोवर है जो कि मंडी जिला की एक प्रमुख झील है | इस झील को “त्सो पेमा लोटस झील” के नाम से भी जाना जाता है | यह झील चौकोर आकर की है और समुद्र तल से 1350 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है| इसके साथ ही एक मानी-पानी नामक बौद्ध मठ और एक गुरुद्वारा भी स्थित है | इसे महर्षि लोमश की तपो भूमि भी माना जाता है यहाँ शंकर, लक्ष्मीनारायण के मंदिर भी प्रमुख हैं |
किसकी है यह विशालका्य प्रतिमा -:
शायद ही कोई हिमाचली हो जिसका रिवालसर से होकर गुज़रना कभी न रहा हो और आपको हमेशा आकर्षित की होगी पहाड़ पर बनी बौद्ध संत की विशालकाय प्रतिमा ।
अक्सर लोगों में यह कन्फयूजन रहता है ये प्रतिमा किसकी है| गौतम बुद्ध की या किसी और संत की, तो आपको बताते हैं ये प्रतिमा है “बौद्ध धर्मगुरु पद्मसम्भव” की |
पद्मसंभव बौद्ध संत जिन्होंने आठवीं शताब्दी में हिमाचल प्रदेश के रिवालसर स्थान पर गुफ़्फ़ा में तपस्या की थी।
रिवालसर से पहाड़ की चोटी पर स्थित नैना देवी मंदिर के रास्ते पर ये गुफ़ा आती है ।
पद्मसंभव बौद्ध संत ने बौद्ध धर्म को भूटान एवं तिब्बत में ले जाने एवं प्रसार करने में महती भूमिका निभायी। वहाँ उनको “गुरू रिन्पोछे” (बहुमूल्य गुरू) या “लोपों रिन्पोछे” के नाम से जाना जाता है। ञिङमा सम्प्रदाय के अनुयायी उन्हें द्वितीय बुद्ध मानते हैं।
उन्हें गुरु रिंपोछे के नाम से भी जाना जाता है। उन्हें न्यिन्गमा परंपरा का संस्थापक माना जाता है।
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एक कथानुसार जाने क्या है इनका पाकिस्तान कनेक्शन -:
पद्मसंभव उद्यान (वर्तमान स्वात, पाकिस्तान) के निवासी थे। यह क्षेत्र अपने तांत्रिकों के लिए विख्यात था। वह एक तांत्रिक और योगाचार पंथ के सदस्य थे तथा भारत के एक बौद्ध अध्ययन केंद्र, नालंदा में पढ़ाते थे। 747 में उन्हें राजा ठी स्त्रीङ् देचन् ने तिब्बत में आमंत्रित किया। वहां उन्होंने कथित रूप से तंत्र-मंत्र से उन शैतानों को भगाया, जो भूकंप पैदा कर एक बौद्ध मठ के निर्माण में बाधा उत्पन्न कर रहे थे। उन्होंने 749 में बौद्ध मठ का निर्माण कार्य पूर्ण होने तक उसकी देखरेख की थी। तिब्बती बौद्ध पंथ ञिङ् मा पा (पुरातन पंथ) के सदस्य पद्मसंभव की तांत्रिक क्रियाओं, पूजा तथा योग की शिक्षा का पालन करने का दावा करते हैं। पंथ की शिक्षा की मौलिक पाठ्य सामग्री, जिसके बारे में कहा जाता है कि पद्मसंभव ने उन्हें दफ़न कर दिया था, 1125 के आसपास मिलनी आरंभ हुई थी। उन्होंने कई तांत्रिक पुस्तकों का मूल संस्कृत से तिब्बती भाषा में अनुवाद भी कराया था।
तिब्बत में उनकी शिष्य परम्परा आज भी क़ायम है, जो समस्त हिमालयी क्षेत्र में भी फैले हुए हैं। पद्मसंभव की बीज मन्त्र ‘ओं आ: हूँ वज्रगुरु पद्म सिद्धि हूँ, का जप करने मं बौद्ध धर्मावलम्बी अपना कल्याण समझते हैं। अवलोकितेश्वर के बीज मन्त्र ‘ओं मणि मद्मे हूँ’ के बाद इसी मन्त्र का तिब्बत में सर्वाधिक जप होता है।
गौतम बुद्ध और बुद्धिस्ट फ़िलोसिपी हालाँकि मूर्तिपूजा की विरोधी रही है परंतु समय के साथ बुद्ध भी अब मूर्ति रूप में पूजे जाने लगे हैं ।