जेल के क़ैदियों को थोड़ा अजीब सा लगा जब चार बजे ही वॉर्डेन चरत सिंह ने उनसे आकर कहा कि वो अपनी-अपनी कोठरियों में चले जाएं. उन्होंने कारण नहीं बताया.
उनके मुंह से सिर्फ़ ये निकला कि आदेश ऊपर से है. अभी क़ैदी सोच ही रहे थे कि माजरा क्या है, जेल का नाई बरकत हर कमरे के सामने से फुसफुसाते हुए गुज़रा कि आज रात भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी जाने वाली है.
उस क्षण की निश्चिंतता ने उनको झकझोर कर रख दिया. क़ैदियों ने बरकत से मनुहार की कि वो फांसी के बाद भगत सिंह की कोई भी चीज़ जैसे पेन, कंघा या घड़ी उन्हें लाकर दें ताकि वो अपने पोते-पोतियों को बता सकें कि कभी वो भी भगत सिंह के साथ जेल में बंद थे.
बरकत भगत सिंह की कोठरी में गया और वहाँ से उनका पेन और कंघा ले आया. सारे क़ैदियों में होड़ लग गई कि किसका उस पर अधिकार हो. आखिर में ड्रॉ निकाला गया.
वकील मेहता ने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से अपना मुंह हटाए बग़ैर कहा, “सिर्फ़ दो संदेश… साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और ‘इंक़लाब ज़िदाबाद!”
इसके बाद भगत सिंह ने मेहता से कहा कि वो पंडित नेहरू और सुभाष बोस को मेरा धन्यवाद पहुंचा दें, जिन्होंने मेरे केस में गहरी रुचि ली थी. भगत सिंह से मिलने के बाद मेहता राजगुरु से मिलने उनकी कोठरी पहुंचे.
राजगुरु के अंतिम शब्द थे, “हम लोग जल्द मिलेंगे.” सुखदेव ने मेहता को याद दिलाया कि वो उनकी मौत के बाद जेलर से वो कैरम बोर्ड ले लें जो उन्होंने उन्हें कुछ महीने पहले दिया था.
भगत सिंह ने जेल के सफ़ाई कर्मचारी बेबे से अनुरोध किया था कि वो उनके लिए उनको फांसी दिए जाने से एक दिन पहले शाम को अपने घर से खाना लाएं.
थोड़ी देर बाद तीनों क्रांतिकारियों को फांसी की तैयारी के लिए उनकी कोठरियों से बाहर निकाला गया. भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने अपने हाथ जोड़े और अपना प्रिय आज़ादी गीत गाने लगे-
कभी वो दिन भी आएगा
कि जब आज़ाद हम होंगें
ये अपनी ही ज़मीं होगी
ये अपना आसमाँ होगा.
भगत सिंह इन तीनों के बीच में खड़े थे. भगत सिंह अपनी माँ को दिया गया वो वचन पूरा करना चाहते थे कि वो फाँसी के तख़्ते से ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा लगाएंगे
.
उनकी आवाज़ सुनते ही जेल के दूसरे क़ैदी भी नारे लगाने लगे. तीनों युवा क्रांतिकारियों के गले में फांसी की रस्सी डाल दी गई. उनके हाथ और पैर बांध दिए गए. तभी जल्लाद ने पूछा, सबसे पहले कौन जाएगा?
सुखदेव ने सबसे पहले फांसी पर लटकने की हामी भरी. जल्लाद ने एक-एक कर रस्सी खींची और उनके पैरों के नीचे लगे तख़्तों को पैर मार कर हटा दिया. काफी देर तक उनके शव तख़्तों से लटकते रहे.
उनके पार्थिव शरीर को फ़िरोज़पुर के पास सतलज के किनारे लाया गया. तब तक रात के 10 बज चुके थे. इस बीच उप पुलिस अधीक्षक कसूर सुदर्शन सिंह कसूर गाँव से एक पुजारी जगदीश अचरज को बुला लाए.
अभी उनमें आग लगाई ही गई थी कि लोगों को इसके बारे में पता चल गया. जैसे ही ब्रितानी सैनिकों ने लोगों को अपनी तरफ़ आते देखा, वो शवों को वहीं छोड़ कर अपने वाहनों की तरफ़ भागे. सारी रात गाँव के लोगों ने उन शवों के चारों ओर पहरा दिया.
अगले दिन दोपहर के आसपास ज़िला मैजिस्ट्रेट के दस्तख़त के साथ लाहौर के कई इलाकों में नोटिस चिपकाए गए जिसमें बताया गया कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का सतलज के किनारे हिंदू और सिख रीति से अंतिम संस्कार कर दिया गया.
इस ख़बर पर लोगों की कड़ी प्रतिक्रिया आई और लोगों ने कहा कि इनका अंतिम संस्कार करना तो दूर, उन्हें पूरी तरह जलाया भी नहीं गया. ज़िला मैजिस्ट्रेट ने इसका खंडन किया लेकिन किसी ने उस पर विश्वास नहीं किया.
इस तीनों के सम्मान में तीन मील लंबा शोक जुलूस नीला गुंबद से शुरू हुआ. पुरुषों ने विरोधस्वरूप अपनी बाहों पर काली पट्टियाँ बांध रखी थीं और महिलाओं ने काली साड़ियाँ पहन रखी थीं.
लगभग सब लोगों के हाथ में काले झंडे थे. लाहौर के मॉल से गुज़रता हुआ जुलूस अनारकली बाज़ार के बीचोबीच रुका.
अचानक पूरी भीड़ में उस समय सन्नाटा छा गया जब घोषणा की गई कि भगत सिंह का परिवार तीनों शहीदों के बचे हुए अवशेषों के साथ फिरोज़पुर से वहाँ पहुंच गया है.
जैसे ही फूलों से ढंके तीन ताबूतों में उनके शव वहाँ पहुंचे, भीड़ भावुक हो गई. लोग अपने आँसू नहीं रोक पाए.
किसी को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि 16 साल बाद उनकी शहादत भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अंत का एक कारण साबित होगी