एक बार के मध्यावधि को छोड़,क्यों सरकार रिपीट नहीं हो पाई हिमाचल में-डॉ. राकेश शर्मा 

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हिमाचल लोक प्रशासन संस्थान (हिपा) शिमला में एसोसिएट प्रोफेसर हैं,

ये लेखक के निजी विचार हैं

 

THE NEWS WARRIOR 

SHIMLA- 26-02-2021

एक बार के मध्यावधि नेतृत्व परिवर्तन को छोड़, क्यों सरकार रिपीट नहीं हो पाई हिमाचल में

प्रदेश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का यह बेहद गंभीर प्रश्न चिंतन मंथन के लिए अब आवश्यक हो गया है कि क्यों जनता द्वारा बड़ी आशाओं से चुनी हुई सरकार हर पांच साल के बाद लोगों द्वारा नकारी जाती रही है। 1971 में प्रदेश के पूर्ण राज्य बनने से लेकर आज तक हर एक मुख्यमंत्री अपने दल की सरकार को दोबारा वापस सत्ता में लाने में नाकामयाब रहा है। हालाँकि प्रदेश गठन के बाद प्रदेश निर्माता और 1980 और 1985 के बीच का मध्यावधि नेतृत्व परिवर्तन इसके अपवाद रहे हैं परन्तु 1985 से लेकर 2018 तक के कुल 8 कार्यकालों में कोई भी मुख्यमंत्री अपनी सरकार को 5 साल बाद दूसरी बार सरकार में नहीं ला सका चाहे वो अपने को कितना भी मॉस लीडर क्यों न कहलवाए। 1977 तक हिमाचल निर्माता मुख्यमंत्री रहे। वर्ष1985 के चुनाव पार्टी रिपीट का एक ऐसा उदाहरण है जहां कांग्रेस पार्टी इसलिए रिपीट हुई क्योंकि चुनाव से दो वर्ष पहले उसने राम लाल ठाकुर को हटा वीरभद्र सिंह को मुख्यमंत्री बनाया और पार्टी की सरकार को रिपीट करवाया। 

नया चेहरा दिखा परिवर्तन का मन बना चुकी जनता को नए नेतृत्व से नए सपने दिखाए जा सकते हैं शायद। रिपीट न हो पाने का विषय इसलिए भी आज महत्वपूर्ण है कि सिक्किम, ओड़ीसा,  गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश इत्यादि कुछ राज्यों में मुख्यमंत्री या उनके दल लगातार तीन या उससे अधिकतम अवधियों में सरकारें चलाने में कामयाब हुए हैं।  

प्रदेश के संदर्भ में दो बातें स्पष्ट हैं कि या तो लोगों की आकांक्षाएं अत्यधिक हैं या फिर किसी भी सरकार द्वारा चलाया गया शासन-प्रशासन गड़बड़ और जन-सेवा निम्न स्तर की। हालाँकि और अधिक बेहतरी चाहने का भी तर्क दिया जा सकता है परन्तु धरातल की परिस्थितियां जानकर इस विषय की प्रासंगिकता नहीं रहती। इन दो पहलुओं के अतिरिक्त अनेकों ऐसे कारण हैं जिससे हिमाचल की जनता किसी को दोबारा मौका नहीं देती भले ही उसे पांच साल पहले अस्वीकार किए दल को वापस सत्तासीन करना पड़े।

प्रदेश के ऊपरी पहाड़ी इलाके हो या निचले मैदानी इलाके, इसके अधिकांश लोग ग्रामीण परिवेश वाले हैं। यहाँ देश की कुल जनसंख्या का 90% हिस्सा अभी भी गांव में बसता है और इसीलिए आज भी हमें देश का सबसे ग्रामीण राज्य होने का दर्ज़ा प्राप्त है। ज़्यादातर सामाजिक ताना-बाना एक समान है और देव-संस्कृति व राज-संस्कृति के प्रभाव भी लगभग एक सामान। कठिन दुर्गम परिस्थितियों वाले इलाके दोनों प्रभावों के अतिरिक्त भाग्यवादिता में भी थोड़े आगे रहे हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे भी हस्तांतरित होती गई। उद्यमशीलता के प्रतिकूल माहौल में बेकारी विशेषतया शिक्षित बेरोज़गारी से जूझते युवाओं को भी लोकतंत्र में बेबस देखा जाता रहा है। ऐसे में प्रदेश की राजनीति ने विकास से कहीं अधिक लोगों के भावनात्मक पहलू से छेड़छाड़ कर अपने मनसूबों को फलीभूत किया है।

सबसे बड़े कारणों में हिमाचल का दो बड़े भू-भागों में सांस्कृतिक और भौगोलिक विभेद है।  एक ओर जहाँ मैदानी गर्म इलाके हैं तो दूसरी और ठंडे पर्वतीय क्षेत्र। जिसे कई दफ़ा ऊपरी और निचले, पुराने और नए, हरी टोपी और लाल टोपी, नाटी और भंगड़ा जैसे शब्दों से राजनैतिक महत्वाकांक्षा के साथ जोड़ कर सत्ता परिवर्तन के लिए भावनात्मक रूप में लोगों के दिलों में उतारा गया है। यह भावनात्मक पहलू बंदूक के ट्रिगर (घोड़े) का काम करता है जो एक बड़ी हवा बनाने में शुरुआत करता है और पांच साल बाद अपनी  सरकार की  बारी की फिर वापसी। इस सब में वे लोग अग्रिम पंक्ति में होते हैं जो या तो प्रताड़ित महसूस करते हैं या फिर जिनके काम पहुँच की कमी से बन नहीं पाते। लोगों के सबसे बड़े कामों में तबादले और तदर्थ नौकरियाँ होती हैं जिनसे एक खुश तो दस नाराज़।  हवा बनाने वाला एक और तबका सबसे आगे होता है जिसे सरकारी व्यवस्था से कुछ लाभ हासिल करने होते हैं।  यही लोग अधिक शोर मचाते हैं और विपक्ष के नेताओं के इर्द-गिर्द गाड़ियों और लोगों की भीड़ भी उपलब्ध करवाते हैं। 

हिमाचल के अधिकाँश मतदाताओं को प्रदेश की आर्थिकी और सुशासन की अधिक समझ न होने से उनका समर्थन या तो भावनात्मक जुड़ाव से ही ज़्यादा रहता है या फिर राजनेताओं द्वारा पहुँचाए गए निजी फायदे, जो अक्सर शीर्षस्थ हस्तक्षेप से पूर्ण होते हैं जिसे विपक्ष और आलोचक कई दफ़ा चोर दरवाज़े का नाम भी देते हैं। इसी बीच ग्रामीण परिवेश में परस्पर राजनैतिक एवं सामुदायिक संघर्ष प्रदेश के नेतृत्व के लिए राजनीति को पंचायत स्तर की आंतरिक राजनीति के बीच ही सिमट देता है जबकि प्रदेश और देश की राजनीति अलग-अलग मुद्दों पर तय होनी चाहिए। सभी सरकारों से जल्द ऊब जाने का एक और कारण यह है कि अपने नेतृत्व से कुछ बड़ा ही करिश्माई जल्द दिखाई नहीं देता जो अधिकांश जनता को सरकार से जल्द ही विमुख करना शुरू कर देता है।

यहाँ यह भी समझना आवश्यक है कि न ही अधिकांश जनता को यह समझ है कि आखिर उनकी सरकार सामर्थ्य के मुताबिक क्या कर सकती है और न ही नेताओं की इस संदर्भ में दूर-दृष्टि है। जनता को अनेकों कार्यों के सिलसिले में सरकारी कार्यालयों में बार बार इधर-उधर भटकना पड़ता है या फिर जान पहचान और बिचौलियों को ढूंढना पड़ता है क्योंकि भाग-दौड़ के इस तनावपूर्ण माहौल में आज किसान-बाग़वानों के पास भी समय नहीं है। शायद इसी के चलते हिमाचल के लोग आज राजनैतिक और दफ़्तरी लोगों  से जान पहचान बनाने में अधिक समय व्यतीत कर रहे हैं बजाय अपने काम में अधिक ध्यान देने पर। इस चक्रव्यूह से नागरिक उन्मुक्त प्रशासन और सेवा प्रावधान एक दुष्चक्र में पड़ कर न केवल सभी की परेशानियां बढ़ा रहे हैं बल्कि आर्थिकी को भी कमज़ोर करने का काम कर रहे हैं। 

हिमाचल में सरकारों से शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़कों के लिए लोगो की अपेक्षाएँ अत्यधिक है जिनकी गुणात्मक पूर्ति पर्याप्त धन और अकुशल आर्थिक-प्रशासनिक प्रबंधन से नहीं हो पा रही।  प्रदेश और सरकार की आय बढ़ाने की कोई विशेष कोशिश किसी स्तर पर दिखाई नहीं देती और न ही प्रभावी नीति निर्माण के लिये आवश्यक शोध करती कोई सरकारी रणनीति।  इसके अभाव से बजट जैसे महत्वपूर्ण प्रयास भी मात्र आंकड़ों के खेल और वार्षिक औपचारिकता तक सिमट कर रह जाते हैं। सच मानें तो प्रदेश में प्रतिद्वंदी राजनैतिक दलों में नेताओं के लक्ष्य लगभग एक सामान हैं और उनके नज़दीक जुड़े लोगों के भी।

अब अधिकांश अधिकारी-कर्मचारी भी लगभग इसी तरह चलने लगे हैं और यह विभेद हर स्तर पर आज देखने को मिल रहा है चाहे कोई कितना भी तठस्थ बनने का आडम्बर क्यों न करे। किसी भी शासन व प्रशासनिक व्यवस्था में सुशासन तभी आ सकता है जब लोगों में उसकी समझ विकसित हो पाए और उस द्वारा सुधारों के लिए बढ़ चढ़ कर मांग हो क्योंकि नेतृत्व वह करने में मजबूर होता है जिसे लोग चाहते हैं।  यदि वे अतिथि-स्वागत उद्घोष से ही खुश है तो नेतृत्व समाज का एकदम आईना है। अन्यथा दस्तावेज़ों को स्वयं प्रमाणित करने तक का सुधार भी कमज़ोर पड़ते देखा गया है। दूसरी ओर, राजनैतिक नेतृत्व की विषय-पारंगतता, दूर-दृष्टि और सुधारों के लिए प्रबल इच्छाशक्ति आवश्यक है। इसकी कमीं और जनता द्वारा आम समष्टिगत सुधारों के बजाय निजी हितों तक ही सीमित रह जाना सरकार को पुराने ढर्रे पर ही चलाने को मजबूर करता है।

हर कहीं बिन नियोजन व आधारभूत ढांचे के स्कूल-कॉलेज घोषित करना इसी का एक जीता जागता उदाहरण है। तीसरे छोर पर सरकारी मशीनरी में जो कलपुर्ज़े सरकार के क्रिया-कलापों को बंद फाइलों और पारंपरिक चिट्ठियों से धकेलते हैं अधिकाँश में यह असुरक्षा हावी रहती है कि ‘अगर आम नागरिक के लिए सब आसान हो गया तो हमें कौन पूछेगा’। इन सब कारणों से ढांक  के तीन पात हिल नहीं पाते और बदलती सरकारों से सपने पूर्ण नहीं हो पाते।  

हालाँकि कोई नेतृत्व एक-आध पहलू पर पकड़ बना भी पाया तो कुछ अन्य कारकों के सशक्त होने से सत्ता से बाहर हुआ क्योंकि यह विषय अत्यंत जटिल है। इस जटिलता में प्रदेश की सांस्कृतिक विविधता और लोगों का भावनात्मक पहलू अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं जिसका दोहन हर एक राजनेता और वर्तमान राजनीति अपने अपने ढंग और उद्देश्य से कर रही है।

रिपीट न कर पाने के अन्य कुछ कारक हैं: विशिष्ट क्षेत्रों के विकास पर ही बल और अन्य क्षेत्रों से छल की भावना, निकटतम छुटभैये/कर्मियों/अधिकारियों की संकीर्ण/नकारात्मकता/अहंकारी छवि, चोर-दरवाज़े से पोषित रहने की आस और आजीवन श्रद्धा, रिपीट करने की कोई विशेष स्पष्ट रणनीति का न होना, सत्ता सुखभोगी और संगठन कार्यकर्त्ता के आपसी टकराव, नेताओं की अमीरी और जनता से अलग जीवनशैली, हर एक चुनाव क्षेत्र में शय और मात के लिए खड़े किए जाने वाले समानांतर नेता और असामाजिक तत्वों का पालन पोषण इत्यादि कुछ और ऐसे पहलुओं को उजागर करता है जो किसी भी सरकार को रिपीट करने में बाधक बनता है।

एक लाइटर नोट पर, कई दफ़ा तो ऐसा भी प्रतीत होता है कि रिपीट करने के प्रयत्न सरकारों में लोग इसलिए भी ज़्यादा नहीं करते क्योंकि पहाड़ी लोग हैं चढ़ाई में जल्द थक जाते हैं और विश्राम के आदी हैं। थकान मिटाने के लिए समुंदर किनारे केरल में पंचकर्मा के लिए भी तो जाना होता है ताकि अगले पांच साल बाद फिर से तरोताज़ा होकर प्रदेश की सेवा करने पुनः वापिस आ सके 

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पारदर्शी बनकर सोचिए की खौफ से कैसे निकलें बाहर -निशिकांत ठाकुर 

 

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