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फोटो सोर्स (इन्टरनेट) अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन
पारदर्शी बनकर सोचिए की खौफ से कैसे निकलें बाहर
निशिकांत ठाकुर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)
THE NEWS WARRIOR
NEW DELHI – 25 फरवरी
पिछले दिनों मेरे सहयोगी रहे एक संपादक का फोन आया कि सुभाष चन्द्र बोस की जयंती है, आप यदि उनसे संबंधित लेख भेज दें तो अच्छा रहेगा। मुझे अच्छा लगा कि मुझसे जुड़ा हुआ मेरा कोई सहयोगी आज इस ऊँचाई पर पहुँच गया है और मेरा लेख प्रकाशित करना चाहता है। मैंने उसका अनुरोध स्वीकार तो कर लिया, लेकिन किसी के लिए जानना और उनके संबंध में तथ्यों के आधार पर व्यवस्थित लेखन अलग-अलग बातें है। चूँकि मैं स्वयं 42 वर्षों से प्रिंट मीडिया से जुड़ा रहा हूँ इसलिए यह बात भलीभाँति जानता हूँ कि लिखा गया कुछ भी स्थाई प्रमाण होता है। इसलिए जब तक किसी चीज की पूरी जाँच-परख न कर ली जाए, उस पर लिखना अपनी साख के साथ साथ उस अखबार अथवा पत्रिका की साख से भी खिलवाड़ करना है। साख कोई एक-दो दिन में नहीं बनती। उसे बनाने में वर्षो लग जाते हैं। फिर सुभाष बाबू पर जो भी अच्छी किताब मिली उसे पढ़कर उनके विषय में लगभग बारह सौ शब्दों का लेख लिखा जिसे कई अखबारों के साथ-साथ डिजिटल मीडिया ने भी अपने यहाँ स्थान दिया। फिर देश के कई महापुरुषों, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों, धर्माचार्यों पर पहले स्वयं पढ़ा फिर लिखा।
इस बीच देश में कई राजनीतिक हलचलें होती रहीं, लेकिन मेरा ध्यान केवल उन महापुरूषों को जानना और समाज को उसकी जानकारी देना बन गया। आज मन बना कि इस धारा से हटकर कुछ लिखा जाए, इसलिए आपसे इन बातों को साझा कर रहा हूँ। जबान तो सत्य बोलने के लिए ही होती है, लेखनी भी सत्य लिखने के लिए ही होती है। लेखनी और जबान में कोई अंतर नहीं होता है। उसी तरह अखबार में प्रकाशित तथ्य सत्य ही होता है। मैंने जिनसे प्रिंट मीडिया और संपादन की बारीकियाँ सीखी हैं, वह कहा करते थे कि जिस प्रकार अखबार का मास्टहेड उस अखबार के नाम को प्रमाणित करता है, उसी प्रकार उसमें प्रकाशित एक-एक शब्द प्रमाणित होना चाहिए। अन्यथा एक ग़लत शब्द से ही अनर्थ हो सकता है और अखबार या पत्रिका की साख को जमीन पर ला देता है – जो वर्षो में बनाए गए होते हैं।
अब रही साख की बात। इसे अमेरिकी राष्ट्रपति वाशिंगटन की इस कहानी से समझा जा सकता है। अमेरिकी पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन आपने पद से निवृत्त होने के बाद पास ही के अपने गांव वरनर आकर बस गए थे। यहाँ उनका घर और खेत हैं। उनका निवास, अस्तबल उनकी घोड़ागाड़ी को लोगों ने वैसा का वैसा ही छोड़ रखा है। इल्वेर के युद्ध में यदि वाशिंगटन के नेतृत्व को नहीं अपनाया गया होता तो सैनिक, शिक्षारहित किसान बंदूकधारी प्रशिक्षित ब्रिटिश सेना के सामने हार जाते। अमेरिका की स्वतंत्रता एक सपने जैसी बात होकर रह जाती। उसकी कृतज्ञता के नाते सभी ने वाशिंगटन को प्रथम राष्ट्रपति चुना। तब वहाँ की जनता में प्रजातंत्र का संस्कार तक नहीं था। सभी सीधे-सादे किसान थे। सभी का विचार था कि वाशिंगटन को गद्दी पर बैठना चाहिए। सभी वाशिंगटन की जय जयकार करने लगे। परंतु, वाशिंगटन ने उन्हें समझाया कि आप लोग पागल हो गए हैं। एक ब्रिटिश राजा के विरुद्ध युद्ध किया गया, अब आप दूसरा राजा बनाना चाहते हैं। तभी कुछ लोगों ने जोर पकड़ा और कहा कि वॉशिंगटन को ही जीवनपर्यंत के लिए राष्ट्रपति घोषित किया जाए। वॉशिंगटन ने उन्हें फिर समझाया और कहा कि तुम लोग अपनी बातों का अर्थ स्वयं नहीं समझ पा रहे हो। जीवनपर्यंत गद्दी पर बैठने वाला केवल निरंकुश ही नहीं हो जाता, अपितु सदा अपने वंश को ही आगे बैठाने का प्रयास करता है। उन्होंने सलाह दी किं अवधि समाप्त होते ही आप लोग दूसरा अध्यक्ष चुन लो। अगर आगे आने वाले अध्यक्ष को मेरी आवश्यकता महसूस हो तो मैं अपने खेत वाले घर से आकर उन्हें सलाह और सहायता दूंगा। फिर वह अपने खेत वाले घर में चले गए। उसके बाद से यही नियम बन गया कि विश्व का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति केवल चार वर्ष अथवा अधिक से अधिक दो टर्म अर्थात आठ साल से अधिक अमेरिकी राष्ट्रपति नहीं रह सकता। इसका वर्तमान उदाहरण डोनाल्ड ट्रंप का राष्ट्रपति पद से चुनाव हार जाना है। यह जॉर्ज वाशिंगटन का बनाया नियम और साख है।
अब आइए अपने भारत की बात करते हैं।अपने देश में प्रधानमंत्री , मुख्यमंत्री या कोई मंत्री ने रिश्वत ली है या नहीं , इसका निर्णय इस देश के न्यायालय में नहीं होता , साक्षी और कागजात के आधार पर भी नहीं होता – चुनाव से होता है । चुनाव जीत गए तो बस हो गया । आपके जो अभियोग है वे सब बकवास और बेकार हैं । उपरोक्त बातों से यह स्पष्ट हो गया है कि यदि विश्व का सबसे शक्तिशाली कोई देश बना तो उसके मूल में मौजूद पहले व्यक्ति की यह सोच थी कि उसके देश का विकास पहले हो। यदि वह चाहता तो जीवनपर्यंत या तो राजा बनकर गद्दी पर बैठता अथवा जीवनपर्यंत राष्ट्रपति बना रहता और निरंकुश हो जाता, लेकिन उसने इसमें अपना निजी हित नहीं देखा क्योंकि वह पारदर्शी थे । उन्होंने केवल देशहित देखा और अपने समर्थकों को बताया कि वह भी निरंकुश हो सकते हैं। भारतीय संविधान भी विद्वानों और दूरदर्शियों द्वारा इसी उद्देश्य से बनाया गया किं कोई निरंकुश न होने पाए। लेकिन , कुछ स्वजीवी लोगों ने देशहित से बड़ा निजहित को मानकर देश को उस गति से विकास के पथ पर बढ़ने से रोक दिया जिस गति से आजादी के बाद विश्व के अन्य देशों ने अपना विकास किया। यह ठीक है कि हमारा देश सैकड़ों साल तक गुलाम रहा और उसके विकास के प्रवाह को कभी मुगलों ने तो कभी अंग्रेजों ने चूरचूर कर दिया। भारत को जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता था उसके सारे स्वर्ण लूट लिए गए और चिड़ियों के रूप में निरीह लोगों को खंड-खंड में विभाजित कर दिया गया। अखंड भारत को टुकड़ों-टुकड़ों में बाँट दिया गया। इस बात को हमारे सारे देशवासी जानते हैं कि भिक्षुक कभी चुनने वाला नहीं होता और गिड़गिड़ाने से कभी प्यार नहीं होता। भारत के साथ भी ऐसा ही हुआ। मुगलों ने और अंग्रेजों ने जो चाहा जैसा चाहा नचाया।
सैकड़ों वर्षों की गुलामी से मुक्त हुए भारत के साथ भी ऐसा ही हुआ। ब्रिटिश संविधान की नकल करने के प्रयास में इसका मूल स्वरूप ही खत्म हो गया। यदि आप शक्तिशाली हो गए हैं तो आप अपनी स्वेच्छा से वर्षों राज कर सकते हैं। आपकी उम्र की भी कोई सीमा नहीं, आपकी शिक्षा पर भी कोई पाबंदी नहीं, आप जब तक जिएँ राज कर सकते हैं। आपका कोई विरोध करे तो आप नए नए कानून बनाकर उसे राजद्रोह अथवा देशद्रोह में जेल में सड़ा सकते है। आजादी दिलाने के लिए जिन्होंने अपने को देश पर न्योछावर किया उनका कोई निज का स्वार्थ नहीं था। वह तो अपने देश पर गुलामी का जो धब्बा लगा हुआ था उसे मिटाना चाहते थे। उनमें नरम दल के लोग मोहनदास करमचंद गांधी के साथ थे तो गरमदल के नेता सुभाषचंद्र बोस की अगुआई में देश की आजादी के लिए समर्पित थे, संघर्षरत थे। देश आजाद हुआ, लेकिन इतने वर्षो के बावजूद हम समस्याओं के भँवरजाल में ही हैं, पर उसे स्वीकार करने के लिए हम तैयार नहीं हैं। हम ऊपर ही लिख चुके हैं किं इसमें मीडिया का साख भी पूरी तरह से संलिप्त है। रोज यदि सुबह अखबार पढ़ना शुरू करेंगे तो ऐसा लगेगा कि पूरे देश में जबरदस्त तूफान आने वाला है और यह चुप्पी उसके आने की पूर्व की सूचना है। इस मानसिक खौफ से समाज कैसे बाहर निकलेगा, यह बताने वाला कोई नहीं है। कभी किसान आंदोलन, कभी टूलकिट नामक नई डरावनी चीज आकर हमें डरा रही है। पता नहीं किस-किस आत्मघाती बीमारी से हमारा देश जाने कबसे गुजर रहा है। कैसे जनता को शांति मिलेगी हमारे देश में कब वाशिंगटन जैसा त्यागी पुरुष पैदा होगा जो पारदर्शी होगा और जनसुख और जन विकास के लिए अपनी गद्दी तक त्याग देगा। कोई न कोई तो ऐसा आएगा ही, लेकिन कब इसे कोई नहीं जानता।
नोट – यह लेखक के निजी विचार हैं
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