कहां और क्यों चले गए टेलीविज़न देखने वाले?

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टेलीविज़न अकेला क्यों रह गया?

तकनीकी दौर में तकनीक ने इंसान को तकनीक से ही दूर कर दिया है। आज लोग घर परिवार में एक साथ बैठें होते हैं सामने टीवी चला होता है लेकिन उसे कोई नहीं देख रहा होता बस सभी के हाथों में स्मार्टफ़ोन होता है सभी उसमें मग्न होते हैं। आज टीवी पर देखने के लिए कोई ऐसे कार्यक्रम ही नहीं बचे जिसे लोग आत्मीयता से देखें। बस एक ही वर्ग है जो अब टीवी देखता है,वह खुद घरों में भी अब टीवी बनकर रह गया है जी हां आपने ठीक समझा यहां बुजुर्गों की ही बात हो रही है , टीवी को शायद अब बूढ़े बुजुर्ग ही देखते हैं अन्य लोग टीवी के सामने बैठे हुए भी कहीं और होते हैं। वैसे प्रश्न यह भी उभर कर सामने आता है कि आखिर टीवी अकेला कैसे हो गया बहुत से कारण हैं टीवी के अकेले होने के सबसे पहला कारण तो यही है कि कोई वक्त था जब टीवी पर आने वाले धारावाहिकों को देखने के लिए भीड़ उमड़ती थी, गली मोहल्ले या गांव में किसी-किसी के पास ही एक टीवी होता था और आस-पड़ोस सभी उस घर में जमावड़ा डाल लेते थे कोई रामायण देखने को तो कोई महाभारत के लिए, कोई शक्तिमान देखने के लिए तो कोई अलिफ लैला देखना के लिए अपने काम तक छोड देता था। इन धारावाहिकों से संस्कार व अच्छाई मिलती थी लेकिन बदलते समय व शहरीकरण ने टीवी पर कुछ और ही विषय परोस दिए सास-बहू की अनबन में कभी सास को बहू की दुश्मन तो कभी बहू को सास की दुश्मन बनाकर दिखाया जाता है कहने का भाव है रिश्तों में दरारें बढ़ाने के लिए इन टीवी धारावाहिकों ने कोई कसर बाकी नहीं रखी। क्राइम रिपोर्टर जैसे धारावाहिकों ने लोगों को क्राइम करने के तरीके बता दिए। बहुत से अदाकार उन उत्पादों को बेचने के लिए टीवी पर विज्ञापन देते हैं जिनको वह अपने जीवन में खुद कभी उपयोग नहीं करते। पहले समाचारों में लोग बहुत रुचि लेते थे जब निजी समाचार चैनल शुरू हुए तो लोगों ने इनमें बहुत रुचि ली लेकिन धीरे-धीरे इनकी विश्वसनीयता कम होती चली गई, इन चैनलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और इनमें खुद को एक दूसरे से सर्वश्रेष्ठ साबित करने की होड़ मची हुई है, फिर उसकी बुनियाद भले ही झूठ पर क्यों न हो? आज बहुत से न्यूज़ चैनल तो अप्रत्यक्ष ऐजेंडा चलाए हुए हैं। उनका आम आदमी की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं वह तो खास के पास बनने की मंशा लिए अपना कार्य कर रहे हैं। इन चैनलों पर होने वाली डिबेट का स्तर देख कर लगता है कि यह समाज में जागरूकता कम, द्वेष व नफ़रत को ज्यादा बढ़ावा दे रहे हैं। कई बार तो एंकर व वहां आए पैनल के बीच में हाथापाई तक देखने को मिल जाती है। इन सब चीजों को भला कोई खुद व परिवार को कैसे देखना-दिखाना चाहेगा? देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जिसने अब इन्हीं कारणों के चलते टीवी को देखना तक छोड़ दिया है। केबल व डीटीएच कंपनियों ने शुल्क तो बढ़ा दिए लेकिन यह नहीं देखा की लोगों ने टीवी देखना छोड़ दिया है। इस दौर में लोगों को सहारा दिया स्मार्टफ़ोन ने, जहां टीवी एक कमरे में परिवार के सब सदस्यों के लिए होता था वहीं स्मार्टफ़ोन के रूप में टीवी हर सदस्य के हाथों में आ गया।

(टीवी पर प्रोग्राम तो चालू हैं पर देखने वाले स्मार्टफोन पर मग्न है)

अलग-अलग रुचियाँ व पंसदीदा कार्यक्रमों को सभी एक टीवी पर एकसाथ इकट्ठे नहीं देख सकते थे लेकिन स्मार्टफ़ोन आने से यह कमी भी दूर हो गई अब तो कोई भी जब मर्ज़ी जहां मर्ज़ी चाहे स्मार्टफ़ोन पर अपना मनपसंद कार्यक्रम देख सुन सकता है। अक्सर घरों में देखा जा रहा है कि सामने टीवी तो लगा होता है परन्तु इसको देखने वाले बच्चों के हाथों में स्मार्टफोन पर अपनी ही दुनिया में खोया पाया जाता है |

कुछ लोग भले ही टीवी देखने में लोगों की कम होती रुचि को स्मार्टफ़ोन को ही दोषी मानते हों लेकिन इससे कहीं अधिक दोषी तो टीवी चैनल खुद हैं।

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