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01 /07 /2022
दवाइयां बीमारियों का इलाज करती हैं लेकिन डॉक्टर ही मरीजों को ठीक कर सकते हैं।
भारत में पहला डॉक्टर दिवस 1991 में मनाया गया था। 1 जुलाई को देश के सबसे प्रसिद्ध चिकित्सक – डॉ बिधान चंद्र रॉय की जयंती और पुण्यतिथि होती है। इसलिए यह दिवस स्वास्थ्य क्षेत्र में डॉ रॉय के अहम योगदान के लिए देश की तरफ़ से एक श्रद्धांजलि है।
डॉ बीसी रॉय का जन्म
डॉ बीसी रॉय का जन्म 1 जुलाई, 1882 को पटना, बिहार में हुआ था। उन्होंने कलकत्ता और लंदन में अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी की थी। उन्होंने 1911 में भारत में एक चिकित्सक के रूप में अपना चिकित्सा करियर शुरू किया।
डॉ रॉय प्रसिद्ध चिकित्सक और शिक्षाविद् होने के साथ-साथ एक स्वतंत्रता सेनानी भी थे। वे सविनय अवज्ञा आंदोलन के दिनों में महात्मा गांधी के सम्पर्क में आए थे औऱ बाद में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री भी रहे।
हमारे देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की त्रिस्तरीय संरचना है जिसमें प्राथमिक, माध्यमिक और तृतीयक स्वास्थ्य सेवाएं शामिल हैं।
सफेद कोट पहने डॉक्टरों को यूं ही धरती का भगवान नहीं मानते, गत वर्ष जहां कोरोना वायरस से देश-दुनिया में हाहाकार की स्थिति थी, ऐसे में ये डॉक्टर दिन- रात एक करके मरीजों की सेवा के लिए तत्पर थे, तकनीकी टीम और नर्सिंग स्टाफ भी इनके मजबूत हाथ बने हुए थे।
डॉक्टर की उपस्थिति ही इलाज की शुरुआत
डॉक्टर की उपस्थिति ही इलाज की शुरुआत है परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टरों की कमी ने ग्रामीणों की समस्याओं को और बढ़ा दिया है।
सतत् विकास लक्ष्य 3 के अनुसार, सभी आयु के लोगों के स्वस्थ जीवन के लिये सतत् विकास आवश्यक है ।
आँकड़ों के अनुसार, देश के 1.3 बिलियन लोगों के लिये हमारे पास सिर्फ 10 लाख पंजीकृत डॉक्टर हैं। इस हिसाब से भारत में प्रत्येक 13000 नागरिकों पर केवल 1 डॉक्टर मौजूद है। यह आँकड़ा स्पष्ट रूप से देश के डॉक्टरों पर कार्य के अत्यधिक बोझ को दर्शाता है।
18-20 घंटों तक भी करना पड़ता कार्य
कभी-कभी डॉक्टरों को 18-20 घंटों तक भी कार्य करना पड़ता है, जिसके कारण वे कई मनोवैज्ञानिक बीमारियों से भी ग्रसित हो जाते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार, प्रत्येक 1000 नागरिकों पर 1 डॉक्टर होना अनिवार्य है।
इस मानक को पूरा करने के लिए हमारे देश में वर्तमान में मौजूदा डॉक्टरों की संख्या को दोगुना करना होगा ताकि स्वास्थ्य क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में मानव संसाधन हो यानी देश में अधिक डॉक्टर और नर्स उपलब्ध हों।
जीडीपी का महज़ 1.3 प्रतिशत खर्च
आंकड़ों के मुताबिक, भारत स्वास्थ्य सेवाओं में जीडीपी का महज़ 1.3 प्रतिशत खर्च करता है, जबकि ब्राजील स्वास्थ्य सेवा पर लगभग 8.3 प्रतिशत, रूस 7.1 प्रतिशत और दक्षिण अफ्रीका लगभग 8.8 प्रतिशत खर्च करता है। जो स्वास्थ्य संबंधी योजनाएं बनाई गई हैं उनमें केवल माध्यमिक या द्वितीय और तृतीयक स्वास्थ्य सेवाएं ही शामिल हैं।
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एलोपैथी को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बजट का 97%
वर्तमान में स्थिति यह है कि, लगभग 70% जनसंख्या, प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के लिए भी अपनी जेब से भुगतान करती है। इनोवेशन समय की मांग है। भारत सरकार ने स्वास्थ्य की आठ प्रणालियों को मान्यता दी है, जैसे एलोपैथी, आयुर्वेद, सिद्ध, स्व-रिग्पा, यूनानी, प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपैथी और योग। एक अनुमान के अनुसार, एलोपैथी को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बजट का 97% प्राप्त होता है, और 3% शेष सात प्रणालियों में बांटा जाता है।
स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी के लिए आवशयक कदम उठाने की जरुरत
विशेषज्ञों का कहना है कि स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी के लिए कुछ ऐसे कदम हैं जो सही समय पर उठाने जरूरी हैं। जैसे पहले तो स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के लिए अखिल भारतीय सेवा (एआईएस) के बनाने की आवश्यकता है जो सभी के लिए खुला हो। दूसरे नम्बर पर, एक विषय के रूप में स्वास्थ्य को वर्तमान राज्य सूची से समवर्ती सूची में स्थानांतरित किया जाना चाहिए। हमारा देश अपनी सकल घरेलू आय का 1.2 प्रतिशत हिस्सा ही स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च करता है, जो कि कई अल्पविकसित देशों जैसे सूडान आदि से भी कम है ।
चिकित्सा सेवा एक ऐसी सेवा है जिसमे कभी सेवानिवृत्ति नही होती
हमारे देश में निजी संस्थानों की चिकित्सा शिक्षा की लागत काफी तेज़ी से बढ़ती जा रही है, वहीं सरकारी चिकित्सा महाविद्यालयों में इतनी क्षमता नहीं है कि वे देश की आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। निजी संस्थानों की अत्यधिक चिकित्सा शिक्षा लागत और सरकारी चिकित्सा महाविद्यालयों में सीटों की कमी से देश में डॉक्टरों की कमी का संकट और गहराता जा रहा है।
चिकित्सा सेवा एक ऐसी सेवा है जिसमे कभी सेवानिवृत्ति नही होती , चिकित्सक जितना अनुभवी हो उतना ही दक्ष और कार्यकुशल माना जाता है। झोलाछाप डॉक्टर जो न तो पंजीकृत हैं और न ही उनके पास उचित डिग्री है, ये सभी हमारी स्वास्थ्य प्रणाली के लिए काफी खतरनाक हैं।
डॉक्टरों के खिलाफ उनके कार्यस्थल पर हिंसा कोई नई घटना नहीं है
देश में एक ओर आधे से अधिक राज्यों में चिकित्सा सुरक्षा अधिनियम लागू है, परंतु इसके बावजूद समय-समय पर इस प्रकार की हिंसक घटनाएँ सामने आती रहती हैं। जानकारों के अनुसार, इसका मुख्य कारण यह है कि इन घटनाओं को रोकने के लिये जो नियम-कानून बनाए गए हैं उनका सही ढंग से कार्यान्वयन नहीं हो रहा है।
डॉक्टरों के खिलाफ बढ़ती हिंसा के साथ ही डॉक्टरों और मरीज़ों के बीच विश्वास की कमी भी धीरे-धीरे चिंता का विषय बनती जा रही है।
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कई बार मीडिया द्वारा भी डॉक्टरों को नकारात्मक रूप से चित्रित किया जाता है
मीडिया को यह समझने की जरूरत है कि लापरवाही के कारण अस्पताल में होने वाली हर मौत के लिए डॉक्टरों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। अधिक स्वास्थ्य बजट खर्च बेहतर सुविधाएं देने में और डॉक्टर-रोगी अनुपात को सही करने में मदद करेगा, जिससे डॉक्टरों के खिलाफ बढ़ती हिंसा में भी कमी आएगी।
डॉक्टरों के लिए किया जाना चाहिए कार्यशालाओं का आयोजन
हमारे डॉक्टर बढ़ती हिंसा की घटनाओं,अपर्याप्त कर्मचारियों, बुनियादी ढाँचे की कमी जैसी चिंतनीय परिस्थितियों में कार्य कर रहे हैं। इन सभी के प्रभाव से उनकी कार्यकुशलता में कमी आती है और जीवन रक्षा के कार्य में वे अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान नहीं दे पाते हैं। इस स्थिति से बचने के लिए हर चिकित्सा पेशेवर को क्रोध प्रबंधन और तनाव प्रबंधन से सम्बंधित प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए औऱ मनोचिकित्सकों के माध्यम से भी डॉक्टरों के लिए कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिए।
इसके अलावा,सरकार और सभी चिकित्सा संस्थानों को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि कार्यस्थल पर हिंसा के लिए जीरो टॉलरेंस हो।
अब समय आ गया है कि आक्रामकता और हिंसा की इस प्रवृत्ति को कम दिया जाए और डॉक्टरों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को उनकी जरूरत की सुरक्षा प्रदान की जाए।
लेखक- प्रत्यूष शर्मा
ईमेल- ankupratyush5@gmail.com
फोन- 7018829557
पता– प्रत्यूष शर्मा S/O विधि चंद शर्मा, गाँव – पलासन, डाकघर- नाल्टी, तहसील और जिला- हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश। पिन-177001