सन्तोष गर्ग
भाषा अध्यापिका
रा०व०मा०वि ० घुमारवीं
बिलासपुर ,हि ०प्र०
7018219059
यह लेखिका के निजी विचार हैं !
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शिक्षक की भूमिका
शिक्षा के बिना मानव जीवन निरर्थक है ।शिक्षा ही जीवन को गत्यात्मकता प्रदान करके हमें सकारात्मकता की ओर अग्रसर करती है । शिक्षक ,गुरु के बिना शिक्षा उस नाव की तरह है जिसका कोई खवैया नहीं ।गुरु का शाब्दिक अर्थ है पूजनीय , बड़ा या वज़नदार । प्रतीकात्मक अर्थ से देखा जाए तो गुरु वह विभूति है जो अज्ञान रूपी अंधकार को मिटा कर हमारे मन में ज्ञान की लौ को अलख करता है ।गुरु हमें सांसारिक एवम् व्यावहारिक ज्ञान देते हुए हमें इस सृष्टि के अनुरूप कार्य करने की प्रेरणा देते हैं ।
सनातन धर्म में प्राचीन काल से शिक्षक का अहम् महत्व रहा है । बाल्यकाल को देखा जाए तो सबसे बड़ी और प्रथम गुरु माँ है जिसने हमें जीवन दिया , खाना -पीना सिखाया उसके बाद पिता जिन्होंने ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाया फिर शिक्षक का आविर्भाव हुआ ।शिक्षक जो हमें शिक्षा देता है ,जीवनयापन हेतु संसाधनों को अर्जित करने की क्षमता उसके बाद जीवन को तकनीकी एवम् व्यावहारिकता के समावेश से आगे बढ़ते हुए हमारे भीतर स्थिरता रहने के लिए हमें आवश्यकता होती है एक ऐसे गुरु की जो हमें सांसारिक होते हुए भी अध्यात्म ,परमार्थ और मोक्ष के पथ पर गतिमान करें ।
गुरु की महिमा आदि काल से ही चली आ रही है । भगवान श्रीराम अपने तीनों अनुजों के साथ गुरु विश्वमित्र के आश्रम में विद्या ग्रहण करने गए । श्रीकृष्ण जी गुरु संदीपनी जी के आश्रम में धर्म कर्म की शिक्षा ग्रहण करने गये ।कुंती पुत्र कर्ण ने गुरुपरशुराम जी से शिक्षा ग्रहण की । सनातन धर्म में गुरु का स्थान ईश्वर तुल्य है ।शिक्षक का सम्मान हमारा वह जीवन मूल्य है जो हमें अन्य प्राणियों से भिन्न करके हमें धरा का तार्किक एवम् संवेदनशील प्राणी का सृजन करता है ।जैसे सूर्य के ताप से वसुंधरा को वर्षा की बूँदों से शीतलता एवम् उर्वरकता प्राप्त होती है उसी तरह गुरु-चरणों में नतमस्तक साधक को ज्ञान ,शील एवम् शक्ति मिलती है ।
“गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वर, गुरु साक्षात् परमं ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नम:।
अर्थात- गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है. गुरु ही साक्षात परब्रह्म है. ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करती हूँ ।
सन्त कवि कबीर जी गुरु की महिमा का गुणगान करते हुए कहते हैं कि
“गुरू बिन ज्ञान न उपजै, गुरू बिन मिलै न मोष।
गुरू बिन लखै न सत्य को गुरू बिन मिटै न दोष।।”
बिना गुरू के ज्ञान का मिलना असम्भव है। तब तक मनुष्य अज्ञान रूपी अंधकार में भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनों मे जकड़ा रहता है जब तक कि गुरू की कृपा प्राप्त नहीं होती। मोक्ष रूपी मार्ग दिखलाने वाले गुरू हैं। बिना गुरू के सत्य एवं असत्य का ज्ञान नहीं होता। उचित और अनुचित के भेद का ज्ञान नहीं होता फिर मोक्ष कैसे प्राप्त होगा? अतः गुरू की शरण में जाओ। गुरू ही सच्ची राह दिखाएंगे।
“गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।”
गुरु और गोबिंद (भगवान) एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए – गुरू को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरू के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
निश्चय ही गुरु वो मध्यस्थ मार्ग है जो अज्ञानता रूपी अंधकार को मिटा कर ज्ञान की ज्योति से जीवन को सही राह की ओर अग्रसर करता है ।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यदि गम्भीरता से अध्ययन किया जाए तो शिक्षक को संस्कृति,सभ्यता और राष्ट्र के अनुरूप अपने भीतर सात्विक गुणों का सृजन करके राष्ट्र के उत्थान में अपनी ऊर्जा का सकारात्मक संचारण करें यह नहीं कि हमारी शिक्षा “भारत तेरे टुकड़े होंगे ईशानअल्लाह ।” जैसे विचार को पनपने दे जो राष्ट्र की एकता एवम् अखंडता पर प्रश्न चिह्न लगा कर उसे विभक्त करने का नकारात्मक दृष्टिकोण युवाओं के भीतर उत्पन्न करें ।
वर्तमान के शिक्षक की भूमिका सकारात्मक एवम् बहुआयामी होनी चाहिए जो छात्रों को मात्र शिक्षित ही ना बनाए बल्कि उनके भीतर सहिष्णुता, समग्रता, समन्वयता , राष्ट्रीयता जैसे गुणों का सृजन करें।शिक्षा के साथ समझ को विकसित करें । वर्तमान शिक्षा संख्यात्मकता की होड़ में गुणात्मकता को पीछे छोड़ रही है यही कारण है कि दुराचार,अपराध की दर बढ़ती जा रही है ।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तकनीकी शिक्षा का परम्परागत शिक्षा शैली पर प्रभाव स्पष्ट प्रतिविंबित हो रहा है ।डिजिटल क्षमताओं का बढ़ता हुआ जाल शिक्षा पद्धति को भी अपनी तरफ़ आकर्षित कर रहा है ।शिक्षक को शिक्षण विषय वस्तु के लिए इनका सही प्रयोग करने के लिए विद्यार्थी को प्रेरित करना चाहिए ।इस परिवर्तित प्रणाली के साथ शिक्षक को शिष्य के व्यावहारिक पक्ष को भी परिपक्वता प्रदान करनी होगी कि वह इन डिजिटल क्षमताओं का का सदुपयोग करे ।शिक्षक को विद्यार्थी के साथ स्वयं अधिगमकर्ता बनकर सीखने और सिखाने हेतु तत्पर रहने की नितांत आवश्यकता है जिससे विद्यार्थी स्वयं को शिक्षक के सानिध्य में सबसे अधिक सुरक्षित अनुभव करे ।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥
गुरु ही शिष्य के चरित्र का निर्माण करता है, गुरु के अभाव में शिष्य एक माटी का अनगढ़ टुकड़ा ही होता है जिसे गुरु एक घड़े का आकार देते हैं, उसके चरित्र का निर्माण करते हैं। जैसे कुम्भकार घड़े का सृजन करते समय बाहर से चोट मारता है और अंदर से हल्के हाथ से उसे सहारा भी देता हैं की कहीं कुम्भ टूट ना जाए, गुरु उसकी न्यूनताओं को दूर करते हैं, उसके अवगुणों पर चोट करते हैं, लेकिन अंतर्मन से उसे आश्रय भी देते हैं, कि कहीं वह टूट ना जाए।
शिक्षक की भूमिका पर ही किसी भी राष्ट्र की दशा और दिशा निर्भर करती है ।सृजन और प्रलय दोनों ही शिक्षक की गोद में पलते हैं ।ओसामा बिन लादेन भी स्वामीविवेकानंद होते अगर उसे भी रामकृष्ण परमहंस का वरद हस्त मिला होता ।शिक्षक का लक्ष्य राष्ट्र सर्वोपरि की सद्भावना का बीजरोपण करके उसे सदाचार , नैतिक , सामाजिक ,संवेग़ात्मक , आध्यात्मिक एवम् परजनहिताय ,जनान सुखाय जैसे उर्वरकों से पोषित करके एक विशाल वृक्ष के रूप में स्थापित करे जिसकी छांव में राष्ट्र स्वयम् को गौरवान्वित अनुभूत करे ।
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