क्या भगत सिंह को नहीं चाहते थे गांधी? रुकवा सकते थे फांसी ? क्या है सच्चाई
देशभर में सोशल मीडिया पर 2 अक्टूबर आते-आते एक सवाल व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी और सोशल मीडिया पर घूमता दिखाई देता है। इस तारीख को यह सवाल इसलिए भी ज्यादा एक्टिव होता है क्योंकि अक्टूबर को महात्मा गांधी जयंती से चंद दिन पहले ही शहीद भगत सिंह की जयंती होती है।
आपको बता दें कि तारीख 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में काबा गांधी और पुतलीबाई के घर मोनिया का जन्म हुआ। जिनका आगे चलकर नाम महात्मा गांधी हुआ। महात्मा गांधी ने अपना जीवन जहां भारत और भारत के लोगों के लिए समर्पित किया वही उनके जीवन से संबंधित कई बाते आज भी लोगों के बीच चर्चा का विषय बनते हैं इन्हीं विवादों में से एक विवाद यह भी है कि क्या भगत सिंह को महात्मा गांधी नहीं चाहते थे ? क्या महात्मा गांधी भगत सिंह की फांसी रुकवाने थे?
बात कुछ इस प्रकार है कि 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ दिल्ली में केंद्रीय असेंबली में दो बम फेंके गए जिसके बाद मौके से ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया हालांकि भगत सिंह का मकसद किसी को मारना नहीं था। वह सिर्फ आजादी के लिए आवाज बुलंद करना चाहते हैं। 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह और उनके साथ ही सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई फांसी के लिए तय तारीख से 1 दिन पहले ही उन्हें 23 मार्च 1931 को लोहा जेल में फांसी दे दी गई थी।
फांसी के लगभग 17 दिन पहले महात्मा गांधी और वायसराय लॉर्ड के बीच एक समझौता हुआ जिसे आज इरविन पैक्ट के नाम से जाना जाता है। इस समझौते में एक प्रमुख सहयोगी थी कि हिंसा के आरोपियों को छोड़कर सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जाए वहीं भारतीयों को समुद्र किनारे नमक बनाने का अधिकार हो जैसी अन्य मांगे शामिल थी अंग्रेजी हकूमत द्वारा मानकर कांग्रेस द्वारा सविनय अवज्ञ आंदोलन को स्थगित कर दिया गया।
महात्मा गांधी द्वारा भगत सिंह की फांसी को रुकवाने के संदर्भ में विभिन्न किताबे महत्मा गांधी पर और भगत सिंह पर प्रकाशित हुई है जिनमें से इतिहासकार एजी नूरानी ने अपनी किताब The Trial of Bhagat Singh के 14वें चैप्टर Gandhi’s Truth में कहा है कि महात्मा गांधी द्वारा भगत सिंह को बचाने को लेकर आधे अधूरे प्रयास किए गए भगत सिंह की मौत की सजा को कम करके उम्र कैद में बदलने के लिए वायसराय से महात्मा गांधी द्वारा जोरदार अपील नहीं की गई .
इसके साथ ही महात्मा गांधी और इतिहास पर कई किताबें लिखने वाली लेखक अनिल नोरिया लिखनी है कि भगत सिंह की फांसी को कम करवाने के लिए महात्मा गांधी द्वारा तेज बहादुर सप्रू और श्रीनिवास शास्त्री को वायसराय के पास भेजा गया था।
ब्रिटिश सरकार में 1930 से 1933 के बीच गृह सचिव रहे हरबर्ट विलियम ने अपने संस्मरण में लिखा है कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए एक महात्मा गांधी के प्रयास ईमानदार थे और उन्हें काम चलाओ कहना शांतिदूत का अपमान है।
वही महात्मा गांधी का कहना था कि अगर भगत सिंह और उनके साथियों से मिलने का मौका मिला होता तो उनसे यह जरूर करते कि उनके द्वारा चुना हुआ रास्ता गलत है। वह बताते कि हिंसा के मार्ग पर चलकर आज नहीं मिल सकता सिर्फ मुश्किलें ही मिलती है।
कहा जाता है कि भगत सिंह आजादी की लड़ाई में कूदने के शुरुआती दिनों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानते हैं परंतु महात्मा गांधी हिंसा के खिलाफ थे। भगत सिंह के पास उस समय कांग्रेस में भी दायित्व था लेकिन महात्मा गांधी की हिंसा विरोधी सोच के कारण उन्होंने यह दायित्व छोड़ दिया। जिस कारण दोनों ही क्रांतिकारियों ने अपने अलग-अलग रास्ते चुने।