कविता
अप्रकाशित मौलिक अभिव्यक्ति ।
मैं अभी जीता कहाँ ,मैं हूँ 21सवीं का सपूत ,
कभी-कभी दिवास्वप्न में लगता यमदूत ,
मैंने सीख लिया है ऐवरेस्ट पर चढ़ना ,
मैं मापने उत्सुक ब्रह्मांड की दूरी ,
मैंने जाँच ली है महासागरों की गहराई,
मैंने खोज ली है महाभारत कालीन संजय जैसी दिव्यदृष्टि ,
मैं समर्थ स्वेच्छा से कृत्रिम जलवृष्टि ,
मैं खोज रहा गंभीर बीमारियों का इलाज ,
शीघ्रतम मंगल ग्रह रैहन बसेरा लालायित हूँ आज ,
क्रंक्रीट के जंगल बनाकर प्रसन्न चित हूँ आज ,
लेकिन मैं अभी जीता कहाँ ?
अभी कहाँ जान सका ईश का आदि अन्त ,
मन नियंत्रण कर न बन सका शाश्वत संत ,
कहाँ जान सका जन्म मृत्यु रहस्य ,
कहाँ पकड़ सका आत्मा व परछाई ,
मेरी जीत पर किसने शोक धुन बजायी ,
मैं अभी जीता कहाँ ?
जीत तो मेरे कार्यों पर घडि़याली आँसू बहा रही है ,
मैं किंमकर्तव्यविमूढ़ अभी हार की मृगतृष्णा को ही ,
जीत मानने की भूल में समाकूल हूँ ,
जीत तो अभी कोटि प्रकाश वर्ष की दूरी पर मंद मंद मुस्करा रही है।
रवि कुमार सँख्यान ,
मैहरी काथला, जनपद बिलासपुर हिमाचल प्रदेश
सचल वार्ता ,9817404571