बेटी, बहू, पत्नी और माँ क्या है मेरी पहचान ! कहानी मेरे अस्तित्व की !

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एक लड़की के लिए शादी उसके जीवन का वो पडाव होता है जिसके बाद उसकी जिन्दगी पूरी तरह बदल जाती है | कहाँ मायके में उसका राज होता है मनमर्जी का खाना पहनना, मन किया तो कुछ कर दिया वरना किसी काम को हाथ न लगाना | पापा की तो परी होती है वो तो उसकी हर ख़ुशी का ख्याल रखते हैं, होती तो माँ की भी लाडली है पर माँ को पता है एक दिन पराए घर जाना है और वहां जाकर कोई उसे ताने न मार पाए इसलिए उस पर थोड़ी सख्ती दिखाती है और वो जायज भी है क्योंकि भारतीय समाज में अगर बेटी को कुछ न आए तो माँ ने क्या सिखाया है ? ये तो जैसे सबका प्यारा शगल है |

मेरी माँ ने भी इसलिए मुझ पर सख्ती रखी और चाहा कि मैं हर काम में निपुण बनूँ | भला लड़की माँ के घर है किसी कोचिंग सेंटर में तो नहीं | लड़कों को तो कोई कुछ नहीं कहता चाहे जो करें न करें भई ऐसा क्यों ? पर हम चाहे कोई भी दलील दें, ये तो रघुकुल रीत सदा चली आई और जो चली आई उसे बदलने में वक्त तो लगेगा | कुछ बदलाव तो आए हैं पर वो बहुत कम हैं | अगर मैं अपनी दादी, नानी और माँ के जीवन को देखूं तो ऐसे लगता है जैसे उनका जीवन उनके लिए नहीं ओरों के लिए ही है जब में मायके में थी तो बड़ी-बड़ी बातें करती थी कि हम तो नहीं करेंगें ऐसी गुलामी | क्या पति परमेश्वर हम भी तो वैसे ही इंसान हैं जैसे वो हैं पर शादी के बाद सारी डींगें धरी-धराई रह गई और उसी परिपाटी पर चलने लग गई जिस पर दादी, नानी और माँ चली और मुझे भी चलना सिखाया | सदियाँ लग जाती हैं किसी चलन के बदलने में | खुदा का शुक्र है कि मेरा अवतरण उस जमाने में नहीं हुआ जब बाल विवाह और सती प्रथा जैसी कुरीतियाँ थी और उससे थोडा पहले अगर जन्म हुआ होता तो शायद जन्म लेते ही या शायद जन्म लेने से पहले ही परमधाम पहुँचा दी जाती | चलो जब भगवान ने निश्चित किया तो मैंने जीवन पाया धरती पर | पर ये समझने में मुझे ज्यादा वक्त नहीं लगा कि ईश्वर के बनाए इस अनमोल धरोहर जीवन में इंसानों की बनाई ऊँच-नीच, स्त्री–पुरुष में भेद-भाव की दीवारें बड़ी मजबूत हैं | जब होश सम्भाला तो कुछ ऐसा पाया कि कुछ अधिकार तो जन्म से ही मुझसे छिन गए थे क्यों कि मैं एक लड़की थी | समाज में जो स्थान और सम्मान पुरुषों का है वो स्त्रियों का नहीं | हर जगह अपने अस्तित्व को ढूँढना और उसका प्रमाण देना पड़ता था | अब मुझे क्या पता था कि माता-पिता से मिले वैदेही नाम की ही वजह से उसे भी सीता माँ की तरह हर मोड पर परीक्षाएं देनी पड़ेगीं | शादी के बीस साल पीछे जब वो मुड कर देखती हूँ तो मानो कल की ही बात है जब मैं गुलाबी रंग का चूडा, ओढनी और लाल साड़ी पहनकर इस आँगन में डोली से उतरी थी |

फोटो में H.A.S अधिकारी श्रीमती ज्योति राणा हैं I

बीस साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला | परिवार की जिम्मेदारियां, कभी ख़ुशी कभी गम कितने दर्द और कितनी रंग-बिरंगी यादों का मेला बन गया जीवन | कभी-कभी तो जीवन स्वर्ग से भी सुंदर लगता और कभी-कभी तो जीवन इतना बेकार भी लगा कि जीने का कोई उदेश्य नहीं लगता था और जीवन के उन नाजुक पलों से न जाने कौन सी दिव्य शक्ति सहारा बन जाती थी | आज भी याद है वो ससुराल की पहली सुबह जब टी-शर्ट और लोअर पहनने वाली लड़की को लम्बा सा घुंघट डाल कर घर का सारा काम करना पड़ा और पैर छू-छू कर तो मानो कमर टूट गई थी और शादी के बाद रिश्तेदार तो ऐसा डेरा जमाकर बैठ जाते हैं कि बस पूछो ना | नये-नये तो सब सहन करना पड़ता था पर बाद में कई बार सुरेश से इन रिश्तेदारों को लेकर बहस भी हो जाती थी | अपने लिए वक्त ही नहीं मिलता था | मेरा स्वाभाव जितना चुलबुला और खुशमिजाज था सुरेश उतने ही अक्खड और अपने ही मूड में रहने वाले थे | शुरू-शुरू में तो सब ठीक था पर समय के साथ उन्हें मेरी आदतें बचकाना लगने लगी और मेरी मांगें नाजायज | परिवार में हर चीज मांग कर करनी पड़ती और कई चीजो को फालतू कह कर उन्हें अनसुना कर दिया जाता | मन बहुत दुखता भला जिसकी ख्वाइशें बोलने से पहले पूरी हो जाती यही उसे मांगने पर भी मनाही सुननी पड़े ये कितना दुखदायी था | वक्त गुजरता गया फिर आदत भी बनती गई और रिशु का जन्म हुआ तब तो मेरी दुनिया ही उस में सिमट गई | जिन्दगी से शिकायतें बहुत थी पर रिशु, मेरा बेटा उसके जीवन में आने के बाद जैसे सब बदल गया इच्छाएं सिमट गई | वो जब गोद में सिमट जाता था तो मानो सारा जहाँ पा लिया | सुरेश और रिशु की सेवा भाव में जीवन खुश था और एक शांत समुद्र पर बहती नाव की तरह चला जा रहा था और अब माँ की बातें याद आती थी जब मैं उन्हें कहती थी कि क्यों सबका इतना करती रहती हो कि अपना ध्यान भी नहीं रखती , तो माँ कहती थी ये तुझे उस दिन पता चलेगा जब तू माँ बनेगी | सुरेश तो पहले ही अपने आप में व्यस्त रहते अब उनकी बड़ी आदत भी नहीं रही थी अब रिश्ते में एक परिपक्वता आ गई थी जिसमे ये तो ख्याल रहता था कि जीवनसाथी किसी बात से दुखी या परेशान तो नहीं पर ये ख्याल बिलकुल भी नहीं होता था कि एक दूसरे को खुशियाँ देना भी हमारा कर्तव्य और जीवन है | दोनों के लिए ये जरूरी नहीं था कि मैंने उसके लिए क्या किया पर ये जरूरी था कि उसने मेरे लिए क्या किया | छोटी-छोटी बातों पर खुश होना या छोटी छोटी खुशियों को मनाना तो जैसे हम भूल ही गए थे | घर में सबसे जरूरी होता था रिशु ने क्या खाना है उसे क्या चाहिए बस | और मेरी दुनियां इस दोनों के आसपास सिमट कर रह गई | सुबह से शाम कब हो जाती परिवार की जरूरतें पूरी करते पता नहीं चलता | जिन्दगी में एक शुकुन था | ऊँगली पकड़कर चलने वाला रिशु तो अब इंजीनियर ऋषभ मल्होत्रा हो गया था और लम्बा तो इतना हो गया था कि गर्दन उठा कर उसका चेहरा देखना पड़ता था | सबकुछ होने के बाद भी एक अकेलापन मेरे अंदर भरता जा रहा था | बाप बेटा अपनी-अपनी दुनिया में मस्त और मेरी तो दुनिया ही वो दोनों थे | कभी अपने लिए कुछ किया ही नहीं ना दोस्त ना ऐसा कोई शौक जिसके साथ मैं अपना वक्त काट पाती या हँस पाती|

हाँ कभी-कभी ऋषभ के दोस्त घर आ जाते तो मेरे खाने की बड़ी तारीफ करते और खूब गप्पें मारते | हंसी मजाक चलता पर ऋषभ को ये अच्छा नहीं लगता जिसका जवाब मुझे कभी नहीं मिल पाया कि ऐसा क्यों ? पर एक दिन उसकी ये बात कि माँ तुम हमारे बीच मत बैठा करो ऑकवर्ड लगता है और वो तुम्हारे साथ नहीं हँसते बल्कि आपकी इंग्लिश सुनकर हँसते हैं | ये सुनना उससे भी ज्यादा दर्दनाक था जितना शादी के कुछ महीनों बाद जब सुरेश के दोस्त हमारे घर आए तो मैं चाय लेकर आई और उनके बीच बैठ गई जो मुझे लगा कि मेहमान के बीच बैठकर मेजबान को उन्हें ये महसूस करवाना चाहिए कि आपके आने से हम खुश है | पर थोड़ी देर में सुरेश बोल पड़े, वैदेही आप यहाँ क्यों बैठे हो ? अपना काम करो | ये शब्द सुनते ही मानो मेरे सर पर हथोडा पड़ गया हो | मैंने इतनी शर्मिंदगी महसूस की मानो धरती फटे और मैं वहीं धंस जाऊं | न जाने कैसे मैं वो अपमान सह गई थी | पर आज उसी तरह के ऋषभ के शब्दों से मैं पूरी तरह टूट गई थी | क्या मेरा अस्तित्व इस घर में बस इतना था कि मैं सबकी जरूरतों को पूरा करूँ और जिसका जिस तरह से मन करे मुझे इस्तेमाल करे और कुछ भी बोल जाए | मेरा अपना तो कभी कुछ नहीं रहा था | शादी से पहले लड़की ये, लड़की वो कितनी बंदिशें मुझ पर थोप दी गई | शादी हुई तो अच्छी बहु बनो अच्छी पत्नी बनो उसमे लग गई | बेटा हुआ तो अच्छी माँ बनने का दायित्व | सबके लिए सभी किरदार निभाती रही | मैं अपने लिए तो कुछ बन ही नहीं पाई | सभी ने जितनी जरूरत थी उतना सराहा और चाहा | जीवन के इस पड़ाव में जब कोई औरत चालीस की उम्र को पार कर जाती है तो प्यार मिले न मिले ये उतना मायने नहीं रखता पर आत्मसम्मान पर हल्की सी चोट भी बिखेर कर रख देती है | और वो दिन मेरे पूरी तरह बिखरने का था | ऋषभ अपने दोस्तों के साथ घूमने गोवा चला गया और सुरेश तो पहले ही कई दिनों तक अपने काम के सिलसिले में दौरे पररहते थे | मैं पूरी तरह टूट गई थी पता नहीं दो दिन कैसे गुजरे, पर तीसरी सुबह मेरे लिए कुछ अलग लाई थी |
न्यूज़ पेपर वाला डोर बेल बजाकर पेपर दरवाजे से अंदर कर गया, जैसे ही पेपर उठाया एक पम्पलेट मेरे पेरों पर गिरा जिसको देखते ही एक आस मन में उठी क्यों न मैं भी इसमें हिस्सा लूँ | शायद अभी भी वक्त है अपने लिए जीने का | आप सभी सोच रहे होंगे ऐसा क्या था उसमें ? “ क्या आप भी देना चाहती हैं अपने पंखों को उडान तो एक कदम बढाइए, हम पूरे करेंगे आपके सपने और बनाएँगे आपको मिसेज इंडिया |” मानो जैसे वो पम्पलेट मेरे लिए ही छपा हो | मैंने दो पल नहीं लगाए पम्पलेट पर दिए नंबर पर फ़ोन लगाने को | बस, वहीं से मेरा सफ़र शुरू हुआ खुद को पहचानने का, खुद के लिए जीने का, अपने अस्तित्व को ढूढने का | सफ़र आसान नहीं था लोगों का सामना करने से पहले मुझे खुद का सामना करना था मुकाबला था उन झुरियों से , उस मोटापे से जिसे मैंने सहज ही अपना लिया था समाज के बेढंगे रीति रिवाजों की तरह | अब मुझे पीछे मुड कर नहीं देखना था ना ही मैंने देखा | मैंने उन सब बातों के लिए अपने कान के दरवाजे बंद दिए जो मुझे हीनता का अहसास दिलाती थी |

महीनो की कड़ी मेहनत के बाद मेसेस इंडिया का ख़िताब जब मैंने अपने नाम कर लिया तब मैं , मैं बन पाई वरना तो सारी उमर एक बेटी, बहू, पत्नी और माँ का किरदार निभाते गुजर रही थी | आज मैं खुश हूँ अपना असली अस्तित्व खोज कर |

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आत्मबल

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